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________________ इस प्रकार जिसने धर्म के द्वारा विजय प्राप्त की है, जो धार्मिक क्रियाओं निपुण है और जिसे धर्म प्रिय है, ऐसे भरतक्षेत्र के अधिपति महाराज भरत ने राजा लोगों की साक्षी पूर्वक अच्छे-अच्छे व्रत धारण करनेवाले उन उत्तम द्विजों को अच्छी शिक्षा देकर ब्राह्मणवर्ण की सृष्टि की अर्थात् ब्राह्मणवर्ण की स्थापना की ॥ 221 ॥ इस प्रकार महाराज भरत से जिन्हें सत्कार का योग प्राप्त हुआ है, व्रतों के परिचय से जिनका चारित्र सुंदर और उदार हो गया है, जो शास्त्रों के अर्थों को जाननेवाले हैं और श्री वृषभ जिनेन्द्र के मतानुसार धारण की हुई दीक्षा से जो पूजित हो रहे हैं, ऐसे वे ब्राह्मण संसार में बहुत ही प्रसिद्धि को प्राप्त हुए और खूब ही उनका आदर सम्मान किया गया ॥ 222 ॥ शिरोलिङ्गमुरोलिङ्गं लिंङ्गकट्यूरुसंश्रितम्। लिंङ्गमस्योपनीतस्य प्राग्निर्णीतं चतुर्विधम् ॥ 166 ॥ जिसका यज्ञोपवीत हो चुका है, ऐसे बालक के लिए शिर का चिन्ह मुण्डन, वक्षःस्थल का चिन्ह यज्ञोपवीत, कमर का चिन्ह मूँज की रस्सी और जांघ का चिन्ह सफेद धोती ये चार प्रकार के चिन्ह धारण करना चाहिए। इनका निर्णय पहले ही हो चुका I | इसके अतिरिक्त निम्न तथ्य ध्यान देने योग्य हैं1. यज्ञोपवीत यदि श्रावक के दान पूजा के अधिकार प्राप्त करने का एक अनिवार्य चिन्ह होता, तो इस का विधान सभी श्रावकाचार के ग्रंथों में आवश्यक रूप से उपलब्ध होता । श्रावकाचार के आद्य प्रामाणिक ग्रंथ श्री रत्नकरंड श्रावकाचार में दान का, पूजा का एवं श्रावक की ग्यारह प्रतिमाओं का विशद वर्णन होते हुए भी कहीं भी यज्ञोपवीत का विधान नहीं पाया जाता । तत्त्वार्थसूत्र में श्रावक के बारह व्रतों का स्वरूप, अतिचार, भावनाओं आदि का तथा दान का वर्णन किया गया है, किन्तु व्रती के अनिवार्य चिन्ह यज्ञोपवीत का वर्णन क्यों नहीं किया? इसी प्रकार अन्य श्रावकाचार ग्रंथों में भी यज्ञोपवीत के अनिवार्य विधान एवं इसके बिना दान पूजा के अधिकार न होने की बात तो दूर की बात है, साधारणतया भी यज्ञोपवीत का वर्णन नहीं पाया जाता। दिगम्बर जैनसाहित्य में श्रावकाचार के जो 35 ग्रंथ उपलब्ध हैं, उनमें से केवल दो ग्रंथों में यज्ञोपवीत का वर्णन मिलता है। सागार-धर्मामृत में यज्ञोपवीत के बारे में पूरे ग्रंथ में केवल एक श्लोक है। उसमें आगे के श्लोक से पूर्व में कही बात खंडित हो जाती है। यज्ञोपवीत का विस्तृत वर्णन केवल आदि-पुराण में ही पाया जाता है । किंतु वहाँ भी भरत चक्रवर्ती ने एक चौथे नये ब्राह्मणवर्ण की स्थापना की है और उसकी पहचान के लिए यज्ञोपवीत का विधान किया है। यह पहचान मात्र के लिए की गयी एक सुविधा मूलक व्यवस्था थी, जो धीरे-धीरे रूढ़िपरक बन गई। आचार्य जिनसेन स्वामी संभवतः भरत जी के ही समय में मिथ्यादृष्टि ब्राह्मणों एवं जैनब्राह्मणों के बीच विवाद की कल्पना करते हुए पश्चाद्वर्ती स्थिति का चित्रण करते हैं। आदिपुराण के 39 वें पर्व के श्लोक 99 से 153 में इसका विस्तार से वर्णन है। व्रतों के चिन्हरूप यज्ञोपवीत को धारण करनेवाले संस्कारितव्रती जीवन व्यतीत करनेवाले जैनब्राह्मण या देवब्राह्मण हैं । मलिन आचार के धारक हिंसा में धर्म माननेवाले स्वयं को झूठ मूठ द्विज माननेवाले कर्मचांडाल कहे जाते हैं। इस प्रसंग मे उन मिथ्यादृष्टि यज्ञोपवीतधारी ब्राह्मणों का वर्णन करते हुए आचार्य जिनसेन पृष्ठ 280 श्लोक 39 वें पर्व में श्लोक 118 में लिखते हैं धारण कर व्रताचरण का पालन नहीं करनेवालों की भर्त्सना की है । ऐसे व्यक्तियों द्वारा धारण किये गए यज्ञोपवीत को पापसूत्र कहा है । अतः स्वयं आचार्य भगवंत ने यज्ञोपवीत को व्रतधारण करने का अनिवार्य, यथेष्ट एवं वास्तविक चिन्ह नहीं माना है। Jain Education International 2. तीर्थंकर भगवान् ऋषभ देव ने तीन वर्णों की स्थापना की। उन्होंने व्रतियों का अलग वर्ण नहीं बनाया और न उन व्रतियों के अनिवार्य चिन्हस्वरूप यज्ञोपवीत का विधान किया। उन तीन वर्णवाले व्यक्तियों में, जो व्रती थे उनको एकत्र कर भरत जी ने ब्राह्मणवर्ण की स्थापना की है और उन्हें पहिचान के चिन्हस्वरूप पापसूत्रानुगा यूयं न द्विजा सूत्रकण्ठकाः । सन्मार्गकण्टकास्तीक्ष्णाः केवलं मलदूषिताः ॥ आप लोग तो गले में सूत्रधारण कर समीचीन मार्ग में तीक्ष्ण कंटक बनते हुए पाप रूप सूत्र के अनुसार चलनेवाले हैं। केवल मल से दूषित हैं, द्विज नहीं हैं। (118) अन्य भी अनेक स्थलों पर ग्रंथकार ने यज्ञोपवीत । यज्ञोपवीत प्रदान किया । For Private & Personal Use Only सितम्बर 2008 जिनभाषित 21 www.jainelibrary.org
SR No.524331
Book TitleJinabhashita 2008 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2008
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size5 MB
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