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________________ हैं, इसका मूल्यांकन क्या करें? जो स्वाध्याय करके । सवारी का त्याग किया, तब तहलका मच गया, सवारी में अब वर्णी जी नहीं बैठेंगे, तो क्या करेंगे? हम तो उन्हें पालकी में ले जायेंगे। लोग ऐसा कहने लगे । यह त्याग का परिणाम है। अंत में जब तक घट में प्राण रहे, तब तक वे सवारी में नहीं बैठे। और क्षुल्लक जी बनकर उन्होंने जो कुछ किया वह सराहनीय है। असंख्यातगुणी निर्जरा कर रहा है । स्व और पर के लिये एक स्थान पर चर्चा आयी है कि, जो व्यक्ति आचरण करनेवाला है वह सब कुछ कर रहा है, हमारे लिये धरोहर के रूप में, क्योंकि वह चलकर दिखा रहा है। इसका बड़ा महत्त्व है । मात्र श्रावक पंडित जी (पं. पन्ना लाल साहित्याचार्य सागर) सप्तम प्रतिमाधारी श्रावक हैं। और आप लोग कहते हैं कि पंण्डित जी इसी रूप में रहें और कोई नया ग्रन्थ लिखें। मैं तो कहता हूँ कि पंडित जी को इधर, उधर के काम छोड़ देना चाहिये। बिल्कुल पन्नालाल के आगे सागर लगना चाहिये । 'पन्नालाल सागर जी' और ग्रन्थ को लिखकर समय का सदुपयोग कर आत्म कल्याण कर लेना चाहिये। इसके द्वारा पंडितजी, को समय ज्याद मिलेगा और आपके लिये एक पंथ दो काज, दो ही नहीं दो सौ काज हो जायेंगे और बहुत काम होंगे, बहुत से लोग आकर्षित होंगे क्योंकि वर्णी जी की परम्परा को आप निभाना चाहते हैं । समन्तभद्रस्वामी ने यह ग्रन्थ बनाया है और उसका अनुकरण करना हमारा परम कर्त्तव्य । पूर्वाचार्यों ऊपर यदि हमारा उपकार होता है, तो मात्र उनके अनुसार चलने से ही होता है, मात्र कागजी घोड़े दौड़ाने से नहीं । बात ऐसी है कि जब सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान है, तो ऐसी स्थिति में चारित्र की कोई बात ही नहीं उठती, वह तो अपने आप ही हो जाता है । सन्निपात का लक्षण उथल-पुथल ही रहता है । उसी प्रकार सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान हो, और वह चारित्र की ओर न बढ़े, यह तीन काल में सम्भव ही नहीं । शक्ति बहुत आ जाती है सन्निपात के समय, उसी प्रकार भीतर सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान होने से और देशचारित्र अंगीकार करने के उपरान्त, मुनि कब बनूँ? अब आगे और हम बढ़ें, लेकिन हमारा मार्ग अवरुद्ध हो चुका | सप्तम गुणस्थान से ऊपर चढ़ नहीं सकते। ऐसी सीमा खींच दी, अब हम क्या करें? हम और आगे बढ़ना चाहते हैं, कहाँ गये महावीर स्वामी कहाँ गये वे महाश्रमण, जिनके पास जाकर हम अपनी बात कहें। आप लोगों को मात्र ज्ञान से ही मतलब नहीं रखना चाहिये। हमारी कितनी रुचि हो गई है हेय के प्रति, और उपादेय के प्रति हमारी घृणा बढ़ती चली जा रही है और कितना उत्साह हमारे भीतर जागृत होना और आपेक्षित है। क्षेत्र के अनुसार सारी बातें ध्यान रखना चाहिये, इसलिये सत्य वह है, जैसा वह कहता है कि इसमें लिखा है कण मात्र खानेवाला नरक जाता है और मन भर खानेवाला स्वर्ग जाता है। इस प्रकार की वृत्ति, इस प्रकार का वक्तव्य, अपने को नहीं करना है। वर्णी जी टोपी में नहीं थे, धोती, कमीज में नहीं थे। हमने कुण्डलपुर में आपको यही कहा था। आपने कहा था, सम्यग्दर्शन की चर्चा हमने लिख दी है, आगे लिखने का कोई विचार नहीं है। तो हमने कहा नहीं पण्डित जी आगे और लिखना, पर चारित्र के बारे में आप क्या लिखेंगे ? हालांकि ! पंडितजी का विकास अन्य विद्वानों की अपेक्षा चारित्र के क्षेत्र में बहुत हुआ है, और आज समाज के लिये यह सौभाग्य की बात है लेकिन, पंडितजी को मात्र सागर में रहने के कारण गड़बड़ हो जाता है । जहाँ पर रत्न, हीरा आदि निकलते हैं, वहीं पर उन्हें नहीं रखना चाहिये । उसको तो जौहरी बाजार में भेजना चाहिये और प्रत्येक व्यक्ति उसको देखे, और सही-सही मूल्यांकन करे, सागरवालों को और अधिक मान मिलेगा। सागर ने कई रत्न दिये हैं, उनमें एक रत्न पंडितजी भी हैं। सागरवालों का अपने आपको उपकृत मान लेना चाहिये कि पंडितजी इस बात को अपना रहे हैं। आपके लिये यह बात बिल्कुल नहीं सोचना है कि आगे बढ़कर हम क्या करेंगे? आपका नियम से शरीर साथ देगा और वातावरण भी साथ देगा, और समाज तो साथ है ही ज्यों ही वर्णी जी सप्तम प्रतिमा की ओर बढ़े त्यों ही समाज की दृष्टि उनकी ओर चली गयी। जब उन्होंने । खिड़की या कुटिया बन्द करके सो जाता है, उसके चन्द दिनों के इस जीवन को चलाने के लिये इस प्रकार का अर्थ हमें नहीं निकालना है। सत्य का जयघोष कोई सुने या नहीं सुने, किन्तु सत्य का अनुकरण करते चले जाओ। सूर्य, आगे-आगे बढ़ता चला जाता है और नीचे प्रकाश मिलता चला जाता है, कोई अपनी । सितम्बर 2008 जिनभाषित 11 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524331
Book TitleJinabhashita 2008 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2008
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size5 MB
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