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को देखकर आगम के अर्थ को बदलते रहते । वह व्यक्ति तीन काल में सत्य का उद्घाटन नहीं कर सकता, वह जल्दी-जल्दी आगम के अर्थ को पलट देता है। इस प्रकार की वृत्ति देखकर मन ही मन जिनवाणी रोती रहती । मेरे ऊपर तुमने घूँघट लाया है, मैं घूँघट में जीनेवाली नहीं हूँ। मैं तो जन-जन तक पहुँचकर अपना संदेश देनेवाली हूँ। लेकिन, आजकल कुछ पंक्तियाँ तो अण्डर लाइन की जाती हैं, और कुछ पंक्तियाँ अण्डर ग्राउण्ड की जाती हैं। यह क्या सत्य है? यह क्या सत्य का प्रदर्शन है ? नहीं यह इसलिये हो रहा है कि आज परमार्थ के स्थान पर अर्थ ने अपनी सत्ता जमा ली है। लोगों में राजनीति, अर्थनीति आ गई है, धर्मनीति के लिए स्थान नहीं बचा।
नौजवानो ! उठो !! जागो !! यदि अपना हित चाहते हो, अपनी संस्कृति को जीवित रखना चाहते हो, अपने बाप-दादाओं के आदर्शों को सुरक्षित रखना चाहते हो, तो अर्थ के लोभ में आकर कोई कार्य नहीं करना । यहाँ पर लोभ का सरलीकरण है, यहाँ पर त्याग का अंगीकरण है। यहाँ पर केवल आत्मबल की चर्चा है। परमार्थ की चर्चा है, अर्थ की चर्चा नहीं है । आप लोग कहते हैं अर्थ, तो हाथ का मैल है यूँ-यूँ करने से वह निकल जाता है (हाथ मलते हुये ) पुण्य की वह छाया है । पुण्य का उदय हुआ, तो वह आ जाता है और पाप का उदय हुआ, तो वह चला जाता है । आप धार्मिक अनुष्ठान करने के लिये महापुरुष अहर्निश प्रयास करते रहते हैं । उस सत्य की झलक पाने के लिये वे अपनी आँखें बिल्कुल खोल कर रखते हैं। आचार्य कुन्दकुन्द देव प्रवचनसार में कहते हैं'आगमचक्खू होंति साहूणं'
आगम ही साधु की आँख है। साधुओं की आँख न तो धन-दौलत है, और न ही ख्याति, पूजा, लाभ, मंजिल तक पहुँचानेवाली आगम की आँख ही है । उस आँख को बहुत अच्छे ढंग से सम्भालकर रखना चाहिये। उस दृष्टि में जब विकार या पक्षपात आ जायेगा, तो जिनवाणी उस समय पिट जायेगी। जिनवाणी का मूल्यांकन समाप्त हो जायेगा। बन्धुओ ! यह वह रत्न है, जिसको हम कहाँ रख सकते हैं देखो ! समन्तभद्र स्वामी ने जो कि महान् दार्शनिक थे, अध्यात्मवेत्ता थे, उन्होंने रत्नकरण्डक श्रावकाचार के अंत में लिखा है
10 सितम्बर 2008 जिनभाषित
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येन स्वयं वीतकलङ्कविद्यादृष्टिक्रियारत्नकरण्डभावम् । नीतस्तमायाति पतीच्छयेव, सर्वार्थसिद्धिस्त्रिषु विष्टपेषु ॥
यह कारिका कितनी अच्छी लगती है ! रत्न कहाँ पर रखते हैं? ट्रेजरी में ही रखते हैं न, हाँ...! तो उसमें बहुत से खाने होते हैं, उसके अन्दर एक ऐसी डिब्बी होती है जिस डिब्बी को देखकर मुँह में पानी आ जाता है । उसकी बनावट ही अलग प्रकार की रहती है, और उसके भीतर मखमल बिछा हुआ रहता है। लाल या हरा, उस हीरे के विपरीत रंगवाला ही होता है, वह मखमल का कपड़ा है और उस मखमल पर चमकता हुआ वह रत्न, हीरे का नग रहता है।
यह हुई रत्नों की बात, लेकिन श्रावकाचार किसमें रखा गया है, रत्नकरण्डक में। एक बात और ध्यान देने योग्य है कि रत्न-करण्डक का कई भाषाओं में अनुवाद हुआ लेकिन, 'रत्नकरण्डक' इस शब्द का अनुवाद नहीं हुआ। क्या मतलब? मतलब यह है कि हिन्दी में इसका अर्थ है 'रयण मंजूषा' रयण का अर्थ है रत्न, मंजूषा यानि पेटी, सन्दूकची। रत्न जैसे संदूकची में रखे होते हैं, उसी प्रकार सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र रूपी तीन रत्नों को उन्होंने 'रत्नकरण्डक में रखा है।
आचार्य कहते हैं, ये बड़ी अनमोल निधि है । जो कि बड़ी दुर्लभता से प्राप्त हुई है। छहढालाकार ने कहा है कि
इह विधि गये न मिले सुमणि ज्यों उदधि समानी । जिस प्रकार समुद्र में मणि गिर गई, तो पुनः मिलनेवाली नहीं है, ऐसी ही मनुष्य जीवन की कीमत है । इने-गिने लोग ही इस श्रावकाचार को अपनाते हैं। तीन कम नौ करोड़ ही मुनिराज हैं, जो मूलाचार के अनुसार चलनेवाले हैं और श्रावकों की संख्या तो असंख्यात है, लेकिन मनुष्यों में नहीं । अब सोचिये बहुत कम संख्या है । अनंतानंत जीवों में से श्रावक बनने का सौभाग्य कुछ ही जीवों को होता है, जो कि आप लोगों को उपलब्ध है। ऐसे श्रावकाचार को अपनाओ । दृश्यमान पदार्थों की कोई कीमत नहीं है, हमें भी दृश्यमान पदार्थों की कीमत नहीं करना, द्रष्टा की कीमत आंकना है। आज हम दृश्य के ऊपर, ज्ञेय के ऊपर लेबिल लगाते जा रहे हैं । यह अध्यात्म नहीं है, यह सिद्धान्त नहीं है । हम ज्ञाता, द्रष्टा, आत्म-तत्त्व की मात्र चर्चा करके उसका मूल्यांकन करते
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