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________________ यह युग धर्म का नाश हो रहा हो तो? अप्रत्याशित धर्मनाशे क्रियाध्वंसे सुसिद्धान्तार्थविप्लवे। आगे बढ़ चुका है बहुत दूर.... अपृष्टैरपि वक्तव्यं तत्स्वरूपप्रकाशने। (ज्ञानार्णव) और! जब धर्म का नाश होने लगता है, धार्मिक क्रियाओं धर्म वह का विध्वंस होने लगता है और यदि कोई व्यक्ति सिद्धान्त बहुत ... दूर... का गलत अर्थ निकालता है, तो उस समय बिना पूछे पीछे रह चुका है ही उसका निराकरण करना चाहिए। उस समय वह अन्यथा समन्तभद्राचार्य जैसी गर्जना नहीं करता है, तो उसका पत्रिका का नाम सम्यग्ज्ञान मिथ्याज्ञान के रूप में परिणत हो जायेगा। क्योंकि धर्मयुग उस समय उसने सत्य ढक दिया। यह बात मुमुक्षु को क्यों पड़ा यह? हमेशा ध्यान में रखना चाहिए। आज महावीर भगवान 'चेतना के गहराव में' से | के सिद्धान्त के अनुसार चलनेवाले विरले ही रह गये सत्य का अर्थ है अहिंसा और असत्य का अर्थ | हैं। मात्र साहित्य के माध्यम से ही महावीर का धर्म है हिंसा। हमारे उपास्य देवता सत्य और अहिंसा हैं। | जीवित नहीं है, बल्कि उस साहित्य के अनुरूप चर्या इन्हीं दो मंत्रों को लेकर गाँधी जी ने ब्रिटिश गवर्नमेंट | भी देखने को मिल रही है। भले ही उसका पालन करनेको प्रभावित किया था। इस शताब्दी में भी इस प्रकार | वाले अल्प संख्या में हैं। के परिवर्तन हुए हैं। सत्य-अहिंसा कोई शाब्दिक व्याख्या | साहित्य के अनुरूप आचरण करनेवालों की कमी नहीं है। यह एक प्रकार से भीतर की बात है। आज | होने के कारण बौद्धधर्म विश्व में रहते हुए भी किस सत्य के कदम कहाँ तक उठ रहे हैं, अपने जीवन | रूप में है? हम जान नहीं सकते, मात्र पेटियों में बन्द में सत्य का मूल्यांकन कहाँ तक हो रहा है? छोटी- | हो गया है, बौद्धधर्म के उपासक आज भारत में नहीं छोटी बातों को लेकर झूठ बोलते हैं, लेकिन यह विश्वास | हैं, जबकि बौद्धधर्म भारत में ही स्थापित हुआ था। के साथ सोचना चाहिए, जो काम झूठ के द्वारा हो रहा | प्रचार-प्रसार हुआ था, कि उसके उपासक यहाँ पर नहीं है, क्या वह सत्य के द्वारा नहीं होगा? उससे बढ़कर | टिक सकेंगे। फिर बाद में वह धर्म तिब्बत, लंका आदि ही होगा। लेकिन असत्य के ऊपर हमारा विश्वास जमा हुआ है। असत्य की ओर ही हमारी दृष्टि है। महावीर तक जैनधर्म अबाध गति से चला आ रहा है, __ सत्य का पक्ष वह है, जो कभी फालतू नहीं होता। इसमें कारण क्या है? असत्य का पक्ष हमेशा फालतू ही हुआ करता है। उसकी | एक विदेशी लेखक ने एक पुस्तक में लिखा है कीमत तब तक ही रहती है, जब तक हम समझते | कि बौद्धधर्म का उद्गम भारत में हुआ और भारत में नहीं हैं। हमें असत्य-हिंसा का पक्ष नहीं लेना है, सत्य- | ही उसका वर्चस्व कायम नहीं रह पाया। जैनधर्म का अहिंसा का पक्ष ही लेना है। लेकिन सत्य का पक्ष लेने- | उदगम भारत में हआ और वहीं जीवित रह गया। बौद्धधर्म वाला व्यक्ति, क्रोध, लोभ, भीरुता, हास्य का आलम्बन जीवित क्यों नहीं रह पाया? इसमें कारण यही है कि नहीं लेगा। लोभ के वशीभूत हुआ प्राणी सत्यधर्म को | उसके उपासकों की संख्या घटती गई, इसलिए बौद्धधर्म सही-सही उद्घाटित नहीं कर सकता। सत्य की सुरक्षा | यहाँ से उठ गया। उपासकों के अभाव में वह धर्म लुप्त के लिए क्रोध, लाभ, भीरुता, हास्य को छोड़ना होगा। हो गया और उपासकों के सद्भाव में जैनधर्म आज भी आचार्य शुभचन्द्र जी ने ज्ञानार्णव में एक बात कही है | जीवित है और आगे भी रहेगा। जो मुझे बहुत अच्छी लगी कि विद्वान् को अपनी गम्भीरता | यह बात अलग है कि धीरे-धीरे शिथिलता आ नहीं छोड़ना चाहिए। यद्वा-तद्वा नहीं बोलना चाहिए, अपनी | रही है। चलनेवाला शिथिल भले हो, लेकिन धर्म जीवित सीमा में रहना चाहिए, यह बिल्कुल ठीक है, बार-बार | रखने का श्रेय उपासकों को ही है। धर्मरूपी रथ के पूछने के उपरान्त भी नहीं बोलना चाहिए। लेकिन यदि | दो पहिए हैं, एक मुनि दूसरा श्रावक। यह सत्य है कि अगस्त 2008 जिनभाषित 7 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524330
Book TitleJinabhashita 2008 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2008
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size5 MB
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