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________________ आया हूँ कि जो विदेशी पर्यटक भारत आये, वे अपने | में न चला जाये। साथ सहस्रों की संख्या में संस्कृत-प्राकृत की पाण्डुलिपियों | कातन्त्र व्याकरण : आचार्यश्री विद्यानंदजी का चिंतन लेते गये। उनमें से अनेक तो नष्ट हो गई होंगी, बाकी | एवं शोधकार्य जो भी बची, वे विश्व के कोने-कोने में सुरक्षित हैं। परमपूज्य आचार्यश्री विद्यानन्दजी इस दिशा में हम जिन ग्रन्थों को लुप्त या नष्ट घोषित कर चुके हैं, | अत्यधिक व्यग्र हैं। वे स्वयं ही दीर्घकाल से कातन्त्रबहुत संभव है कि वे विदेशों में अभी भी सुरक्षित हों। व्याकरण का बहुआयामी अध्ययन एवं चिन्तनपूर्ण शोधकार्य उक्त पाण्डुलिपियों में कातन्त्र-व्याकरण के भी विविध करने में अतिव्यस्त रहे हैं। जब उन्हें यह पता चला अनुवाद, टीकायें एवं वृत्तियाँ आदि सम्भावित हैं, जिसकी कि केन्द्रीय प्राच्य तिब्बती शिक्षा संस्थान, सारनाथ, वाराणसी खोज करने की तत्काल आवश्यकता है। के वरिष्ठ उपाचार्य डॉ. जानकीप्रसाद जी द्विवेदी तथा बीसवीं सदी के प्रारम्भ मे जब आधुनिक जैन | केन्द्रिय संस्कृत विद्यापीठ लखनऊ के डॉ. रामसागर मिश्र पण्डित-परम्परा की प्रथम पीढ़ी का उदय हुआ, तब | ने कातन्त्र-व्याकरण पर दीर्घकाल तक कठोर-साधना कर उसमें कातन्त्र-व्याकरण को पढ़ाए जाने की परम्परा थी। तद्विषयक गम्भीर शोध-कार्य किया है, तो वे अत्यधिक जैन-पाठशालाओं में उसका अध्ययन अनिवार्य रूप से | प्रमुदित हुए। उन्हें कुन्दकुन्द भारती, नई दिल्ली में आमन्त्रित कराया जाता है। जैन एवं जैनेतर परीक्षालयों ने भी उसे | किया गया, उनसे चर्चा की गई तथा उन्हें आगे भी अपने पाठ्यक्रमों में निर्धारित किया था। किन्तु पता नहीं | शोध-कार्य करते रहने की प्रेरणा दी गई है। जैन विद्याजगत् क्यों, सन् १९४५-४६ के बाद से उसके स्थान पर 'लघु | को यह जानकारी भी होगी की पिछले मार्च १९९९ को सिद्धान्त' एवं 'मध्य सिद्धान्त कौमुदी' तथा भट्टोजी | डॉ. जानकीप्रसाद द्विवेदी के लिये उनके कातन्त्र-व्याकरणदीक्षितकृत 'सिद्धान्त-कौमुदी' का अध्ययन कराया जाने | सम्बन्धी मौलिक शोध-कार्य का मूल्यांकन कर कुन्दकुन्द लगा। आज तो स्थिति यह आ गई है कि समाज या | भारती की प्रवर-समिति ने उन्हें सर्वसम्मति से पुरस्कृत , तो 'कातन्त्र-व्याकरण' का नाम ही नहीं जानती अथवा करने की अनुशंसा की थी। अतः कुन्दकुन्द भारती के जानती भी है, तो उसे जैनाचार्य लिखित एक अन्तर्राष्ट्रीय | तत्त्वावधान में पूज्य आचार्यश्री विद्यानन्द जी के सान्निध्य ख्याति के गौरव-ग्रन्थ के रूप में नहीं जानती। यह स्थिति | में दिल्ली-जनपद के विद्वानों एवं विशिष्ट नागरिकों के दुःखद ही नहीं, भयावह भी है। आवश्यकता इस बात | मध्य एक लाख रुपयों से 'आचार्य उमास्वामी पुरस्कार' की है कि जैन पाठशालाओं में तो उसका अध्ययन कराया | से उन्हें सम्मानित भी किया गया था। ही जाय, साधुओं-संघों से भी सादर विनम्र निवेदन है । जैन-समाज से मेरा विनम्र निवेदन है कि वह कि वे अपने संघस्थ साधुओं, आर्यिकाओं, साध्वियों एवं | अपने अतीतकालीन गौरव-ग्रन्थों का स्मरण करे, स्वाध्याय व्रतियों को भी उसका गहन एवं तुलनात्मक अध्ययन | करे उनके महत्त्व को समझे तथा उसके शोधार्थियों को करावें, समाज को भी उसका महत्त्व बतलावें और | प्रोत्साहित करने के लिए उन्हें पुरस्कृत / सम्मानित भी विश्वविद्यालयों में कार्यरत जैन-प्रोफेसरों को भी यह प्रयत्न | करती रहे, जिससे कि अगली पीढ़ी को भी उससे प्रेरणायें करना चाहिये कि वहाँ के पाठ्यक्रमों में कातन्त्र-व्याकरण | मिलती रहें और हमारे गौरव-ग्रन्थों की सुरक्षा भी होती को भी स्वीकार किया जाय, जिससे कि हमारा उक्त | रहे। महनीय ग्रन्थ हमारी ही शिथिलता से विस्मति के गर्भ । 'नमोऽस्तु' से साभार भूल-सुधार अप्रैल 2008 के जिनभाषित में कोटा (राज.) के पं० भगतलाल जी शास्त्री के देहावसान का समाचार प्रकाशित हुआ था। वस्तुतः जिनका देहावसान हुआ है, उनका नाम पं० मगनलाल जी था। भूल के लिए खेद है। सम्पादक 16 अग्रस्त 2008 जिनभाषित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524330
Book TitleJinabhashita 2008 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2008
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size5 MB
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