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________________ आदिनाथ स्तवन : एक भावार्थ • श्री सुरेश जैन 'सरल' शब्दलोक की संरचना में, जहाँ उपस्थित सभी वर्ण हैं उनमें 'अ' अक्षर प्राचीन है इसी तरह हे आदिनाथ! तुम आदि-पुरुष हो इस पृथ्वी पर पुराण-पुरुषों में प्रथम पुरुष! हे! तुम्हें नमन है, तुम्हें नमन है। मानव यदि कर सका न पालन आदिनाथ की शिक्षाओं का तो मानव का ज्ञान किताबी या जिह्वा पर सधा शब्द-नाद जीवित भ्रम है, निरा निरर्थक। चरण कि जिनके पड़ें कमल पर, कमल कमल जो चलते जाते उन प्रभु के पावन चरणों में जो मानव शरणागत होता दीर्घ-काल तक जीवित रहता और जगत में सुख पाता है। धन्य धन्य वह मनुज विनत जो आदिनाथ के श्रीचरणों में वह न रखता प्रीत किसी से न ही घृणा समता-भाव कभी न खोता, नहीं कहीं उसको दुःख होता। जो नर नित उत्साह-पूर्वक प्रभु गुणगान किया करता है और आत्मस्थ रहा करता है भले-बुरे वह कर्म विनशता, दुखःदायी फल नहीं भोगता। परम जितेन्द्रिय ईश हमारे, प्रशस्त मार्ग सबको दिखलाते चलता जो उस पथ पर सविनय चिरजीवी हो जाता है, दिशा-दिशा यश छा जाता है। जो आते हैं शरण तुम्हारी हे आदीश्वर! वे भव-भय से, विघ्न-व्याधि से, बच जाते हैं सदा तिहारा गुण गाते हैं। वैभव की हो सेज जहाँ पर, इंद्रिय-सुख भी सहज प्राप्त हो ऐसे कुत्सित आयामों को तज, दूरी रखने की सक्षमता अक्सर वे नर ही पाते हैंजो मुनियों के उपास्य आदिनाथ के चरण-कमल में मन-मस्तिष्क लगा देते हैं, शुभ औ' लाभ भुला देते हैं। धर्म जनित सुख ही यथार्थ हैं, शेष सभी सुख काम-धाम के दाम-नाम के, लज्जा मात्र दिलाते जग से या पीड़ा के कारण बनते, सो धर्मजन्य सखही अपनाओ। जो जो कार्य धर्म-संगत हों। क्रियान्वयन उन्हीं का करिये और उन्हीं पर दृष्टि थामिये यह है गुणीजनों का अभिमत, किन्तु कार्य जो धर्म विमुख हों उनसे सदा विरक्ति राखिये नामोच्चार तक व्यर्थ है उनका। 405 गढ़ाफाटक, जबलपुर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524326
Book TitleJinabhashita 2008 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2008
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size4 MB
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