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________________ जिज्ञासा-समाधान पं. रतनलाल बैनाड़ा प्रश्न- मुख्तार ग्रंथ मे केवलज्ञान होते ही ५००० धनुष । ४. श्री मेरुमंदर पुराण (भा० अनेकांत परिषद्) पृष्ठ १६ ऊर्ध्वगमन हो जाता है, ऐसा उल्लेख किया है। परन्तु कोई | पर इस प्रकार कहा है दिये हैं। क्या आगम में ऐसे प्रमाण मिलते हैं? | "वह समवसरण महान विभति वाला. पाँच हजार समाधान- आगम में ऐसे प्रमाण उपलब्ध हैं जिनके धनुष ऊँचा, जिसकी बीस हजार सीढ़ी, जिस पर अनुसार, तीर्थंकर भगवान् का शरीर केवलज्ञान होते ही | इन्द्रनीलमणिमय गोल भूमि बारह योजन प्रमाण समवसरण ५००० धनुष ऊपर उठ जाता है। समवसरण की रचना, की रचना है।" पृथ्वी से इतने ही ऊपर की जाती है। कुछ प्रमाण इस ५. श्री रत्नकरंडक श्रावकाचार की टीका में पं० प्रकार हैं | सदासुखदास जी ने समवशरण के वर्णन में लिखा है१. श्री तिलोयपण्णत्ति में इस प्रकार कहा है- 'भगवान् अर्हन्त के धर्मोपदेश देने का जो सभा स्थान है, सर-णर-तिरिया रोहण-सोवाणा चउदिसासुपत्तेयं। वह समवशरण है। वह भमि से पाँच हजार धनष ऊँचा वीस-सहस्सा गयणे,कणयमया उड्ढ उड्ढम्मि॥७२८॥ आकाश में बीस हजार सीढ़ियों सहित होता है।' पासम्मिपंचकोसा, चउवीरे अट्ठताल-अवहरिदा। इस प्रकारण में यह भी ध्यान देने योग्य है कि इगि-हत्थुच्छेहाते,सोवाणा एक्क-हत्थ-वासा य॥७३०॥ समोशरण या समवशरण आदि शब्द सही नहीं है। सही अर्थ- देवों, मनुष्यों और तिर्यंचों के चढ़ने के लिये | शब्द तो 'समवसरण' ही है। श्री आदिपुराण ३३/७३ में आकाश में चारों दिशाओं में से प्रत्येक दिशा में ऊपर कहा है- "इसमें समस्त सुर और असुर आकर दिव्यध्वनि ऊपर स्वर्णमय बीस-बीस हजार सीढियाँ होती हैं। के अवसर की प्रतीक्षा करते हुये बैठते हैं, इसलिये जानकार भगवान् पार्श्वनाथ के समवसरण में सीढ़ियों की गणधरादि देवों ने इसका 'समवसरण' ऐसा सार्थक नाम लम्बाई ५/४८ कोस और वीरनाथ के ४/४८ कोस प्रमाण कहा है।" थी। वे सीढ़ियाँ १ हाथ ऊँची और १ हाथ की विस्तार प्रश्न कर्ता- श्री आर.के. जैन एडवोकेट, जबलपुर वाली थीं। जिज्ञासा- क्या भगवान को जैन पद्धति के अनुसार भावार्थ- २०००० सीढ़ियों की ऊँचाई = २०००० जमीन पर लेटकर दंडवत् प्रणाम करना उचित नहीं है। हाथ हुई। एक धनुष में चार हाथ होते हैं। अतः समवसरण समाधान- प्रथमानुयोग में तो भगवान् आदि को की ऊँचाई २००००/४ = ५००० धनुष हुई। नमस्कार करते समय दण्डवत् करने का उल्लेख नहीं २. श्री महापुराण (रचयिता-कवि पुष्पदंत) में इस प्रकार मिलता है। मेरी दृष्टि में जहाँ भी प्रणाम के प्रसंग आये कहा है हैं, वहाँ घुटने मोड़कर ढोक देने के ही प्रमाण उपलब्ध णिय पहणित्रेहय चंदक्कउ, समवसरणु गयणंगणि थक्कउ। होते हैं। कुछ प्रमाण हम इस प्रकार हैंपंचसहसधणु उच्छयमाणइ, सेणिय कहियउ जिणवरणाणइ॥ १. आदिपुराण भाग २ सर्ग ३३ में इस प्रकार कहा १/२८॥ अर्थ- अपनी प्रभा से सूर्य और चन्द्रमा को निस्तेज करने वाला, समवसरण पाँच हजार धनुष ऊँचाई के मान रत्यप्रतयं माहात्म्यं दूरादालोकयन् जिनम्। से आकाश में स्थित था। हे श्रेणिक, यह मैंने जिनवर के प्रव्होऽभूत्स महीस्पृष्टजानुरानंदनिर्भरः॥१२३॥ अर्थ- ऐसे अचिन्त्य माहात्म्य के धारक श्री जिनेन्द्र ज्ञान से कहा। ३. श्री वीरवर्धमानचरित्र में इस प्रकार कहा है- (रचयिता भगवान् को दूर से ही देखते हुये भरत महाराज आनंद से भर गये तथा उन्होंने अपने दोनों घुटने जमीन पर टेककर भट्टारक सकलकीर्ति) भो विंशति सहस्राङ्कमणिसोपानराजितम्।। श्री भगवान् को नमस्कार किया। मुक्त्वा सार्धद्विगव्यूतिं भूमेनभसि संस्थितम्॥१४/७०॥ २. आदिपुराण भाग १ सर्ग २३ में इस प्रकार कहा अर्थ- हे भव्यो, वह बीस हजार मणिमयी सीढ़ियों से विराजित (समवसरण) था और भूतल से अढ़ाई कोस प्रदृश्याथ दूरान्नत स्वोत्तमांगाः सुरेन्द्राः प्रणेमुर्मही स्पृष्ट जानु। किरीटाग्रभाजां स्रजां मालिकाभिर्जिनेन्द्राङ्घ्रियुग्मम् स्फुटं ऊपर आकाश में अवस्थित था। प्रार्चयन्तः॥ ९९॥ - मार्च 2008 जिनभाषित 28 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524326
Book TitleJinabhashita 2008 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2008
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size4 MB
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