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________________ कालसिंह ने मृग चेतन को घेरा भववन में मानवीय इच्छाओं और आकांक्षाओं की कोई सीमा नहीं है। मानव जितना चाहता है, उतना कभी हासिल नहीं कर पाता । अंत में निराश ही होना पड़ता जैन कवि दौलतराम ने छहढाला की पांचवी ढाल की अनित्य भावना में लिख है 'जोवन गृह गोधन नारी, हय गय जन आज्ञाकारी । इन्द्रिय भोग छिन थाई, सुरधनु चपला चपलाई ॥' कवि कहते हैं कि संसार में जो कुछ है सब क्षणिक है, नाशवान है। मनुष्य को प्राप्त यह यौवन, घर - मकान दुधारू सुन्दर गायें, पत्नी, घोड़े, हाथी और आज्ञाकारी सेवक तथा इंद्रियों के सम्पूर्ण विषय भोग क्षणि हैं। जैसे आसमान में इन्द्र धनुष और विद्युत की चमक हमें थोड़ी देर के लिए अपनी ओर आकर्षित कर लेती है और तत्काल विलीन हो जाती है। इस बात को कवि मंगतराय ने एक रूपक के द्वारा प्रस्तुत किया है कालसिंह ने मृगचेतन को घेरा भववन में । नहीं बचावन हारा कोई, यों समझो मन में ॥ राजा भरत चक्रवर्ती के अतिशय पुण्य के उदय से उनकी आयुधशाला में चक्ररत्न के साथ ही नवनिधियाँ एक एक करके प्रकट हुए। इन दिव्य उपकरणों के स्वामी बनकर चक्रवर्ती भरतेश ने छह खण्ड की पृथ्वी पर अपना भरत निष्कण्टक साम्राज्य स्थापित कर लिया। जब चक्रवर्ती भरत ने अपने प्रदेश की अन्तिम सीमाओं पर विजय प्राप्त कर वृषभाचल पर्वत के उत्तुंग मणिमय शिखरों को देखा तो एक क्षण के लिए भरत चक्रवर्ती के मन में अभिमान जागृत हो गया। वे अपनी कीर्ति को पर्वत के उच्च शिखर पर अंकित करने के उद्देश्य से अपने मंत्री के साथ वहाँ गये। वहाँ देखा कि ऊँची से ऊँची पर्वतशिला (चट्टान) पर सर्वत्र पहले से ही अनेक विश्वविजेताओं के नाम अंकित थे। पूरा वृषभाचल पर्वत उन विजेताओं की जय गाथाओं से भरा था चक्रवर्ती भरत अवाक रह गये। चक्रवर्ती भरत का मन तत्काल 'मान के शिखर से उतर कर सामान्य हो गया ! वे सोचने Jain Education International डॉ. श्रीमती रमा जैन से. नि. प्राध्यापक लगे- हम तो कबहु न निज घर आये । पर पद निज पद मानि मगन हुई, पर परिणति लपटाये । शुद्ध बुद्ध सुखकन्द मनोहर, आतम गुण नहीं गाये ॥ कविवर बनारसीदास कहते है, हे प्राणी जो तू अपनी आँखों से देख रहा है, उसमें तेरा कुछ भी नहीं है'जो तू देखै इन आंखिन सौ, तामे कछू न तेरा, चेतन तू तिंहुकाल अकेला।' नदी नाव संजोग मिले ज्यों, त्यों कुटुंब का मेला । यह संसार असार रूप सब, जो पेखन खेला ॥ सुख सम्पत्ति शरीर जल बुदबुद, विनसत नाही वेला । बनारसीदास जी कहते हैं- यह जीव सदा से अकेला है यह जो कुटुम्ब और रिश्तेदार दिखाई देते हैं वे सब नदी नाव के संयोग के समान हैं यह सारा संसार असार है, तथा जुगुनू की चमक के समान झणभंगुर है सुख सम्पत्ति और सुन्दर शरीर जल के बुदबुदे के समान थोड़ी ही देर में नष्ट होने वाले है । अतः संसार से नाते रिश्ते न जोड़कर तू अपनी आत्मा को पहचान । कविवर द्यानतराय भी संसार की असारता को सुन्दर शब्दों में अभिव्यक्त करते हैं- नहीं ऐसा जनम बारम्बार । कठिन कठिन लह्यो मानुष भव, विषय तजिय मतिहार । पाय चिन्तामन रतन शठ, छिपत उदधि मझार ॥ पाय अमृत पाँव धोवे, कहत सुगुरु पुकार । तजो विषय कषाय 'द्यानत' ज्यों लहो भव पार ॥ कवि कहते हैं कि यह मनुष्य भव बार-बार नहीं मिलता चिन्तामणि रत्न के समान दुर्लभ है जिसको यह अज्ञानी जीव (कौआ उड़ाने हेतु) सागर में डाल देता है इसी तरह वह उस अमृत के समान जिसे पीकर अजर अमर होते थे, पीने के बजाय पांव धोने में लगा देता है । अर्थात् विषय कषायों में तल्लीन होकर यह प्राणी मनुष्य जन्म को व्यर्थ गवाँ देता है । ऐसा यह नरभव बार-बार नहीं मिलता। अतः हे प्राणी तू संयम धारण कर इस नरजन्म को सफल बना ले। जब कभी धर्म पर, धर्मात्मा पर संकट आये, उपसर्ग हुए, तब भगवान् की भक्ति के प्रभाव से ही देवों के द्वारा अतिशय चमत्कार हुए, उपसर्ग टले और धर्म का जय-जयकार हुआ। मुनि श्री समता सागरकृत 'सागर बूँद समाय' से साभार जनवरी 2008 जिनभाषित 24 उप अधिष्ठता गुरुदत्त उदासीन आश्रम सिद्धक्षेत्र द्रोणगिरि, जिला छतरपुर For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524324
Book TitleJinabhashita 2008 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2008
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size4 MB
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