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________________ में पंखा चानें, ठंडन में उन्ना-लत्ता, न कमरा - रजाई चानें न बसकारे में छत्ता चानें। बसकारे के चार मइना गैल नई चलत सो कऊँ भी जितै जिनालय होवैं उतई बिलम जानें हमने एकदार उनके संग के एक साधु से दै पूँछी कै बड़े मराझ खों बुन्देलखण्डई काय भा गऔ। तब पतो लगो कै एक दार बे झाँसी असफेर में पवा तीरथ कोद गमन कर रये ते सो एक गाँव वारे जैनी खों पानी पीतन देखो, कै उनें छन्ना सें छानकें अपनी गड़ई धोकें पानी पियो उर बिलछन सँवार के तुरतईं कुआ में पल्ट कें डारे । बस मुनि विद्यासागर खों जँच गई कै जितै के गाँव वारे अनपढ़ बानिया खों धर्म की जा समझ है कै पानी पीवें में एकउ जीव नई मर पावै, उतै साँचउँ जैन धर्म हमेशई जिंदा रै सकत। बस उनें बुन्देलखण्ड की श्रावकक्रियायें ऐसी पवित्र, स्वच्छ और संवेदनशील लगीं कै अब बे कैउ सालन सें कुण्डलपुर, अमरकण्टक, सागर, नैनागिर, बीना बारहा, बहोरीबंद, पाटन कोनी, ललितपुर, सेरोन, बानपुर पपौरा, अहार, देवगढ़ सोनागिर, पनागर, जबलपुर और जादाँ से जादाँ राम टेक तक हो कें बुन्देलखण्डअई में फिर लौट आउत । एई सें वे ई असफेर में धर्म साधना में रत । कै जाँगा सें प्रतिष्ठित श्रावकजन श्रीफल भेंट कर आउत रत पैन उनें शहर की, न सेठ की न प्रदेश की कौनउँ दरकार आय बस जितै धर्माचरण निभत जाय, शांति सें तप में मन रमो रय भले जंगल होय, नईंतर उनें बिना को खों बतायें भैंसरा सें चल दैनें औ दूसरी जाँगा ज्ञान-ध्यान करने। जा सई है के बुदेलखण्ड में दिगम्बर जैन तीर्थन कौ भण्डार है पै अगर मराझ की व्रत साधना न हो पाय तौ वे और कउँ कैसे रै सकत? विद्यासागर मराझ ने साँस मुनि नाव की संस्था खों पुर्नजीवित करकें नय प्रान फूँक दय । इयै प्रासंगिक बनाव, एक तरफ संकीर्णतायें छोड़ी और दूसरी तरफ शिथिलतायें क्षीण करीं । बुन्देलखण्ड के कैउ तीर्थन में उनके ठैरे भर सें सौंनों सौ बरसन लगत, जीर्णोद्धार तौ होई जात। पै तीर्थन के विकास में आचार्यरी अकेले निमित्त भर बनत वे निर्मान, कै कमेटियन के चुनाव, कै धन संग्रह आदि में कौनउँ न रुच लेत न दखलंदाजी करत । जी तीरथ में पौंचत सो अनजान तपस्वी बनकें और तीरथ जब छोड़त तौ बिल्कुल्लई निर्मोही बनकें, लौट तक नई देखत । एई सें कैउ तीर्थन के निर्माण के काम अदबने रै जात। म. विद्यासागर जू कत जे सब समाज के काम आयें। हाँ कुण्डलपुर में कछु विशेष कारनन सें थोरी रुच दिखाई ती पै अब जादाँ उतै भी नईं बीदत । बुन्देलखण्ड में जैनियन में जाँदा, आचार्य श्री पै मुसलमान, ठाकुर औ कैड और जातन के भगत दीवाने है, वे अहिंसा धर्म अपना 26 नवम्बर 2007 जिनभाषित Jain Education International । रये है । माँस खैबौ, शिकार खेलबौ तौ कैउअन नें छोड़ दव। उनके प्रवचन सुनवे मनुष्य तौ ठीक, जीव जन्तु तक आ जात। हालाँ के मराझ विद्यासागरजू ऐसे चमत्कारन सें सीधे इन्कार कर देत। वे कत, जे तौ जीव जन्तु ऑय चाँ जांय निकर परत । I आचार्य विद्यासागर जू कौ जनम कर्नाटक प्रदेश में बेलगाम के सदलगा गाँव में शरद पूनें के दिना सन् १९४६ में भव तौ । श्री मल्लप्पा पिता और माता का नाम था श्रीमती, विद्यासागर जू कौ बचपन कौ नॉव विद्याधर हतो और प्रारंभिक शिक्षा केवल नौंवी तक भई । पै अब वे प्राकृत, अपभ्रंश, कन्नड़, मराठी, बुन्देली, हिन्दी, संस्कृत, अंग्रेजी, बंगला के अधिकृत विद्वान् हैं। नर्मदा का नरम कंकड़, 'मूक माटी' और दोहों की महत्वपूर्ण कृति के संगै कैउ ग्रंथन के वे सृजेता है। आचार्य विद्यासागर जू के व्यक्तित्व औ' कृतित्व के संगै उनकी किताबन पैकैउ अनुसंधान / पी.एच.डी. हो चुर्की, लगातार हो रईं। कैउ विश्वविद्यालयन में उनकौ साहित्य पढ़ाऔ जा रऔ । उनके नाव पैठ संस्थान, कैउ पत्रिकायें चलाईं जा रईं। भारत में जित्ते संतन खों उनने दीक्षा दई उत्ती और कौनउँ गुरुजी ने नई दई । उनकौ कैवो है संत बनवौ न तौ 'पार्ट टाइम जॉब' ऑय न 'बुढ़ापे की विवशता'। आत्म कल्यान करने हैं तो करी उमर में धर्म खों समझौ उर बचपनई सें आत्मोत्थान में लग जाऔ। वे महिलाओं के तप करवे खों मौका देत औ' आज देश में सबसे बड़ौ संघ आचार्य विद्यासागर जू कौ 'महा संत- संघ' है जी में कैउ मुनियन के संगै क्षुल्लक, एैलक उर महिला विदुषी साध्वियाँ हैं । जा कैवौ कै वे मौड़ी-मौड़न खों संत बनवे खौं मजबूर करत तो दूर की बात है, सॉसी तौ जा बात है कै उनसें दीक्षा लैवे के लानें अनेकन युवकन खों नंबर लगाउने आउत और कैउअन खों तौ वर्षन इंतजार करने परत औ कैउअन खों तौ वे मनईं कर देत । बड़े-बड़े इंजीनियर, डाक्टर, डिक्रीधारी, जज अधिकारी उनसें दीक्षा लैकें अब अपने अलग आत्म कल्यान में लगे । केउ उनके शिष्य मुनियन नें अब अपनें अलग संघ बना लये । एक शख्त परीक्षा लेत वे जवानन की, खरे उतरवे पैई वे अपनें संघ में जगा देत । काय कै जैनधर्म कौ साधु बनवौ भौत कठन काम है, शायद सैना में भरती होकें प्रशिक्षण पावे सेई जादाँ कठन । इतै खावौ, पीवौ, पैरवौ, हँसवो, रोवो तौ छूटतई है अपनी इच्छन खों नियंत्रित करके सबतराँ की महात्वाकांक्षन से उदास रैकें, इंद्रियन खों पूरी तरॉ जीतनें परत -तब हो पाउत जैन और जैन संत । 75, चित्रगुप्त नगर, कोटरा, भोपाल-3 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524322
Book TitleJinabhashita 2007 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2007
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size4 MB
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