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________________ परिणमन को प्राप्त नहीं होता है। सूर्यकिरणसम्बन्धं प्राप्तः।। पुंज लगा हो तो घट का परिणमन हो जाय सो भी नहीं सूर्यकिरण के सम्बन्ध को पाकर के अग्निरूप परिणमन | है। इस वास्ते उपादान और निमित्त दोनों अपने अपने में जाता है। इस तरह से आत्मा स्वयं केवल, अकेला पर | बराबर की चीज हैं। कोई न्यूनाधिक उसमें माने सो नहीं सम्बन्धमन्तरेण रागादिकरूप स्वयं न परिणमते। किन्तु | है। उसका कार्य उसमें होता है, इसका कार्य इसमें होता तस्मिन् निमित्तम् परसंग एवं उसके परिणमन में निमित्त, | है। व्याप्य-व्यापक का भाव जो है, उपादान का, अपनी परसंग ही है, उसके निमित्त को पाकर के आत्मा रागादिरूप | पर्याय के साथ होता है। निमित्त की पर्यायों के साथ नहीं परिणम जाता है। यह वस्तु का स्वभाव: उदेति यह वस्तु | होता। परन्तु ऐसा नहीं कि उसका कुछ भी सम्बन्ध न हो। का स्वभाव है। इस प्रकार जो वस्तु के स्वभाव को जानते | यथा अन्तर व्याप्य-व्यापकभावेन मृत्तिकया घटः। मृत्तिका हैं वह ज्ञानी हैं, वे अपनी आत्मा को रागादिक नहीं करके के द्वारा घट बनता है। अन्तर व्याप्यव्याप्येन मृत्तिकैव कारक नहीं होते और जो ज्ञानी नहीं हैं वे कारक होते हैं। अनुभूयमाने, और मृत्तिका ही अनुभवन करती है और इसका तो तात्पर्य यही है। मृत्तिका में ही उसका तादात्म्य सम्बन्ध है। परन्तु बाह्य संसार के अन्दर पदार्थ दो हैं- जीव और अजीव, | व्याप्य-व्यापक भाव कुछ नहीं सो बात नहीं है। व्याप्यअजीव पदार्थ के पांच भेद हैं। उसमें पदगल को छोड व्यापकभावेन, घट के अनुकूल व्यापार कुम्भकार करेगा करके शेष चार जो अजीव हैं वे शुद्ध ही शुद्ध रहते हैं। तो घट होगा- तो व्यापारं कुर्वाण: कुम्भकार जो है वह घट दो जो पदार्थ हैं जीव और पदगल इन पदार्थों में दोनों प्रकार | को बनाने वाला है। और घट से जो तप्ति हई, जलादिक का परिणमन होता है- इनमें विभावशक्ति भी है इन दोनों | आकर जो तृप्ति हुई उसको अनुभवन करने वाला कौन पदार्थों में और अनन्तशक्ति भी हैं वह विभावशक्ति यदि | है? कुम्भकार! इस कारण अगर निमित्त नैमित्तिक भाव न होती तो एक चाल ही होती। विभावशक्ति ही एक ऐसी | न होवे तो तुम्हारे यहाँ पर मृत्तिका में घट नहीं बन सकता चीज है कि जिसके द्वारा आत्मा में परिणमन होता है। पर | बहिः व्याप्यव्यापकभावेन उसके साथ सम्बन्ध है ही, अगर पदार्थ का सम्बन्ध रहता है। पदार्थ-पदार्थ का सम्बन्ध आज | बहिर्व्याप्यव्यापकभाव अस्वीकार करो तो घटोत्पत्ति नहीं हो का नहीं है। अनादिकाल का है। अनादिकाल का सम्बन्ध | सकती। इस तरह से आत्मा में ज्ञानावरणादिक जो कर्म होने से आत्मा का वह रागादिकरूप, द्वेषादिकरूप, क्रोधरूप, | है सो पुद्गल द्रव्य स्वयं ज्ञानावरणादिक कर्मरूप परिणमता मानरूप, माया-लोभादिकरूप जितना भी परिणमन है आत्मा | है। और आत्मा के मोहादिक परिणामों के निमित्त को पाकर का स्वभाव नहीं है- विभावशक्ति का है। विभावशक्ति, के परिणमता है। अगर मोहादिक परिणाम निमित्त रूप में आत्मा के अन्दर है सो ऐसा परिणमन हो जाय, पर का | | हों तो कभी भी तुम्हारे ज्ञानावरणादिक रूप पर्याय को प्राप्त निमित्त मिले तो उस रूप परिणम जाय, इस वास्ते हम | नहीं होवें। इस वास्ते निमित्तकारण की भी आवश्यकता सबको उचित है कि निमित्तकारणों को जो है, उतना ही | है। उपादानकारण की भी आवश्यकता है। आदर देवें जितनी कि आदर देने की जरूरत है। उपादान प्रश्न- श्री रतनचन्द्र जी मुख्तार सहारनुपर- ज्ञान कारण पर भी उतना ही आदर देवें जितनी कि जरूरत | में जो कमी हुई, जीव का स्वभाव तो केवलज्ञान है और है। उसको अधिक मानो या इसको अधिक मानो यह तत्त्व | वर्तमान में जो हमारी संसारी अवस्था में जितने भी जीव नहीं है। दोनों अपने अपने में स्वतंत्र है। उपादान भी स्वतन्त्र | हैं, उनके ज्ञान में जो कमी हुई, वह क्या कर्म के उदय है, वह कहे कि मैं निमित्त बिना परिणम जाऊँ तो कोई | की बजह से हुई या बिना कर्म के उदय की बजह से ताकत नहीं। केवल उपादान की ताकत नहीं है कि निमित्त | न मिले और वह परिणम जाय, सो परिणमेगा वही परनिमित्त उत्तर- पूज्य वर्णीजी महाराज- इसमें दोनों कारण को पाकर के। जैसे कुम्भकार घट को बनाता है। सब कोई | हैं। कर्म का उदय कारण है और उपादान कारण आत्मा जानता है कि कुम्भकार घट को बनाता है। अगर कुम्भकार | है। कर्म का उदय यदि न होय तो ज्ञान कभी भी न्यूनाधिक नहीं होय तो घट परिणाम के सम्मुख भी है और घट परिणाम | परिणमन को प्राप्त नहीं होगा। की प्राप्ति के उन्मुख भी है। परन्तु कुम्भकारमन्तरेण बिना विभाव और बात है। यह तो ज्ञानावरणादिक कर्म नहीं परिणम सकता। कुंभकारादि निमित्त हो और बालू का | का इस प्रकार का क्षयोपशम है। तत् तरतमभाव से आत्मा - नवम्बर 2007 जिनभाषित 11 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524322
Book TitleJinabhashita 2007 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2007
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size4 MB
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