________________
वर्णी जी का समयसार गाथा २७८-२७९ पर प्रवचन
'रागादयो बन्धनिदानमुक्तास्ते शुद्धचिन्मात्रमहोतिरिक्ताः। । रागादिनिमित्तत्वाभावात् रागादिभिः स्वयं न परिणमते। केवल आत्मा परो वा किमु तन्निमित्तमिति प्रणुन्नाः पुनरेवमाहुः॥ स्फटिक को केवल, केवल माने अकेला शुद्ध पदार्थान्तर
। यहाँ पर रागादिक बन्ध का कारण है, यह अमृतचन्द्र | सम्बन्ध के बिना, परिणाम स्वभावे सत्यपि, परिणमन शील सूरि ने कहा है। रागादयः-रागादिक कैसे हैं, शुद्ध | है परिणाम स्वभाव है। परन्तु स्वस्य माने केवल का शुद्ध चिन्मात्रमहोऽतिरिक्ताः। शुद्ध चैतन्यमात्र-मह उससे अतिरिक्त। स्वभावत्वेन रागादि निमित्तत्वाभावाद् रागादि निमितत्त्व का यहाँ पर शुद्ध से तात्पर्य 'केवल' का है। आत्मा उन | अभाव होने से रागादिभिः स्वयं न परिणमन्ते। स्फटिकोपलाः रागादिक के होने में 'आत्मा परो वा किमु तद् निमित्तं' | रागादि करके स्वयं न परिणमन्ते अर्थात् जपापुष्प ऐसा किसी ने प्रश्न किया कि रागादिक होने में आत्मा सम्बन्धमन्तरेण, जपा पुष्प के संबंध के बिना केवल न निमित्त है या और कोई निमित्त है ऐसा प्रश्न करने पर परिणमते. जपापुष्प के सम्बन्ध कहते स्वयं स्फटिकोपलेव आचार्य उत्तर देते हैं
तुम्हारे रागादि भी परिणमते। पर द्रव्य नैव स्वयं जह फलिहमणी शुद्धो ण सयं परिणमइ रायमाईहिं। रागादिभावपरिणमतया। परद्रव्य, जपापुष्पादि परद्रव्य, उनके रंजिज्जदि अण्णेहिं दु सो रत्तादीहिं दव्वेहिं॥ | स्वयं रागादिभाव परिणमतया। उनका स्वयं रागादि परिणमन
जैसे- स्फटिक मणि, केवल स्फटिक मणि स्वयं | स्वभाव है। स्वस्य रागादि निमित्तभतेन स्वस्य स्फटिकोपल शुद्ध है। रागादयो-रागादिरूप जो लाल परिणमन है उसका | को रागादिक का निमित्तभूत होने पर शुद्ध स्वभावत्वे स्वयं न परिणमन्ते, स्वयं न परिणमन्ते इसका क्या अर्थ | प्रच्यवमानेन उसको शुद्ध स्वभाव से च्युत कराता हुआ है. परिणमते स्वयं ही हैं पर निमित्तमन्तरेण न परिणमन्ते | रागादि भी परिणमते। कौन? स्फटिकोपल रागादिरूप परिणम इत्यर्थः। स्फटिक मणि स्वयं रागादिक रूप परिणमेगी, स्वयं | जाता है। यह तो दृष्टान्त हआ। अब दार्टान्त कहते हैं। न परिणमते इसका क्या अर्थ है, परके सम्बन्ध बिना स्वयं | तथा यथा स्फटिकोपल, जपापुष्प सम्बन्ध रागादिरूप परिणमता न परिणमते। पर के निमित्त बिना नहीं यथा मृत्तिका स्वयं | है एवं किल आत्मा परिणामस्वभावत्वे सत्यपि, परिणाम घटरूपेण, परिणमते। मट्टी ही घटरूप परिणमते। यह बात | स्वभाव होने पर भी, यथा स्फटिकोपलपरिणाम स्वभाव होने नहीं है कि मृत्तिका घटरूप परिणमन को प्राप्त नहीं होती | पर जपापुष्पमन्तरेण रागादिरूप नहीं परिणमते तथा केवल परन्तु कुम्भकारादि व्यापारमन्तरेण स्वयं न परिणमते इत्यर्थः। | आत्मा शद्ध परिणाम स्वभाव होने पर भी स्वस्य, शुद्ध कुम्भकार आदि व्यापार के बिना केवल अपने आप तद्रूप | स्वभाव होने पर भी, स्वयं पर द्रव्यनिरपेक्षतया रागादि कर्म परिणम जाय यह बात नहीं है। इसी तरह से आत्मा स्वयं निरपेक्षतया स्वयं अपने आप रागादिरूप नहीं परिणमता। फलिहमणि शुद्धो ण सयं परिणमति रागमाईहिं। शुद्ध, शुद्ध | पर द्रव्य नैव स्वयं रागादि भाव परिणमतया, पर द्रव्य जो से तात्पर्य 'केवल' का है। 'ज्ञानी' का यह अर्थ नहीं लेना हैं स्वयं रागादिभाव परिणमन होने से स्वस्य रागादि कि चौथे गुणस्थान से सम्यग्ज्ञानी, सो नहीं। स्वयं का अर्थ | निमित्तभूतेन, स्वयं को रागादि निमित्तभूत होने पर, शुद्ध केवल स्वयं, केवल, केवल आत्मा जो है, अकेला एक।। स्वभाव से च्युत कराता हुआ रागादिभिः परिणमते एक परमाणु में बंध नहीं होता। एक आत्मा में स्वयं रागादि | रागद्वेषादिरूप परिणमन को प्राप्त हो जाती है। इति परिणमन नहीं होता। रागादि भी स्वयं न परिणमन्ते। स्वयं | वस्तुस्वभावः। इस सबका निचोड़ अमृतचन्द्र स्वामी एक न परिणमन्ते इत्यस्य कः अर्थ। स्वयं परिणमन को प्राप्त श्लोक में कहते हैंनहीं हुये इसका क्या अर्थ है। अर्थात् रागादि कर्मभिः | नजात रागादिनिमित्तभावमात्माऽऽत्मनो याति यथाऽर्ककान्तः। सम्बन्धमंतरा न स्वयं परिणमन्ते। रागादि कर्मके सम्बन्ध | तस्मिन्निमित्तं परसंग एव वस्तुस्वभावोऽयमुदेति तावत्॥ के बिना वह स्वयं, केवल अकेला नहीं परिणमता। आत्मा कभी भी, याति माने कदाचित् भी अपने परिणमता स्वयं, पर रागादिसम्बन्धमंतरा न परिणमते। उसी आप रागादिक का निमित्त होकर परिणमन को प्राप्त हो का अमृतचन्द्र स्वामी अर्थ करते हैं- न खलु केवलाः स्फटि | जाय सो बात नहीं है। यथा अर्ककान्त सूर्यकान्त मणि यथा कोपलाः परिणामस्वभावत्वे सत्यपि स्वस्य शुद्धस्वभावत्वेन सर्यकिरण सम्बन्धमन्तरेण स्वयं अपने आप अग्निरूप
10 नवम्बर 2007 जिनभाषित
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org