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पढ़कर मिलता है। पूज्यपाद स्वामी ने इसके अलावा । में भ्रमित हो एवं दिशाहीन होकर मनुष्य भटकाव में जी समाधितंत्र और तत्त्वार्थसार जैसे स्वतंत्र आध्यात्मिक ग्रन्थों | रहा है। शान्ति पाने के सारे सूत्र उसके हाथ से खिसक का भी प्रणयन किया जो शब्दों में न्यून होकर भी रहस्य | गये हैं। संवेदनायें शन्य हो गयी हैं तथा धनार्जन का मायावी और भावों से भरे हैं। श्री विशुद्धसागर जी ने तत्त्वार्थसार | भूत उसके सिर पर चढ़कर बोल रहा है। आपाधापी के की प्रत्येक गाथा पर स्वतंत्र प्रवचन करते हुए जो अध्यात्मरस | इस संक्रमणकाल में यह भाष्य, मानवता के जागरण का छलकाया है वह तो पाठक पढ़कर ही अनुभव कर सकता | शंखनाद कर रहा है। यह भाष्य जीवन की दशा सुधारने है। भाष्य में जो इष्टोपदेश गाथाओं की पद्य रचना की गयी। में और दिव्य दिशा पाने में एक दिकसचक की भांति जीवन है वह प्रसादादि गुणों से युक्त है। अध्यात्मवाणी का संदोहन | का श्रेष्ठ आयाम बनेगा ऐसा मेरा विश्वास है। अज्ञ को करके भाष्य की रचना अपने आप में ऐसा ग्रन्थ बना गया | विज्ञ बनाना इस भाष्य का इष्ट फल है। मुनि श्री जो आत्म-वैभव से परिचित कराता हआ प्रज्ञा प्रकाश से | विशद्धसागर जी को अध्यात्मयोगी जो सार्थक विशेषण, नाम भरता है। भाष्य का पठन प्रफुल्लित करता है और भव्य | के पूर्व अंकित किया गया, वह वस्तुतः आपके व्यक्तित्व जीव के क्षयोपशम को बढ़ाता है। उसका मिथ्यात्व व अज्ञान | की वह दीपशिखा है जिससे एक रोशनी मिलती है सही स्वयमेव छंटता जाता है और सम्यक्त्व की प्राप्ति कराता | जीवन जीने की और अध्यात्म के रत्नों को अपने जीवन है. यह लघु समयसार रूप है जो आत्मा की महनीयता में संजोने की। इष्टोपदेश भाष्य-द्रव्यानयोग की एक और को उजागर करता है।
अमर कृति बने इस आस्था से समीक्षाकार मुनि श्री के भौतिकवादी भोग संस्कृति के झंझावात में आज चरणों में विनतभाव से नमोऽस्तु करता है। संपूर्ण मानवीय सभ्यता डूब रही है। उसको चेतना से कोई
जवाहर वार्ड, बीना (म.प्र.) लेना देना नहीं। देह की पौद्गलिक माया की मोह गली |
श्रद्धा/ समर्पण » श्रद्धा, बुद्धि से परे है लेकिन उसकी विरोधनी नहीं।। है पर विश्वास नहीं। » श्रद्धा से अन्धकार में भी जो प्रतीत हो सकता है, वह | > श्रद्धा, आस्था और अनुराग से अभिषिक्त मन में ही
प्रकाश में संभव नहीं। प्रकाश में सुविधा मिल सकती। भक्ति का जन्म होता है।
अनेकान्त मनीषी डॉ. रमेशचन्द्र जैन अभिनंदन ग्रंथ का प्रकाशन अखिल भारतवर्षीय दिगम्बर जैन विद्वत्परिषद् के द्वारा जैनविद्या के अप्रतिम मनीषी, ६० से अधिक कृतियों के लेखक, संपादक, अनुवादक, पार्श्व-ज्योति के वरिष्ठ संपादक, विगत् ३५ वर्षों से समाज के मध्य उत्कृष्ट प्रवचनकार विद्वान् के रूप में प्रसिद्ध, ३० से अधिक शोधार्थियों को पी-एच.डी. उपाधि हेतु शोध निर्देशन देने वाले, वर्द्धमान स्नातकोत्तर महाविद्यालय, बिजनौर (उ.प्र.) के संस्कृत विभागाध्यक्ष के रूप में सुदीर्घ सेवाओं के पश्चात् सेवानिवृत्त, अ.भा.दि.जैन विद्वत्परिषद् के पूर्व अध्यक्ष अनेकांत मनीषी डॉ. रमेशचन्द जैन, एम.ए. (संस्कृत), जैनदर्शनाचार्य, पी-एच.डी., डी.लिट. की जैनधर्म-दर्शन-साहित्य-संस्कृति एवं जैन समाज के लिए प्रदान की गई विशिष्ट सेवाओं के सम्मानार्थ अखिल भारतीय स्तर पर अभिनंदन करने का निर्णय अ.भा.दि. जैन विद्वत्परिषद् ने लिया है। इसके अंतर्गत डॉ. जयकुमार जैन (मुजफ्फरनगर) एवं डॉ. नेमिचन्द्र जैन (खुरई) के संपादन में अनेकान्त मनीषी डॉ. रमेशचन्द जैन अभिनंदन ग्रंथ प्रकाशित किया जा रहा है। इस अभिनंदन ग्रंथ हेतु विद्वानों, श्रेष्ठियों एवं शुभेच्छुओं से शुभकामनाएँ, संस्मरण, व्यक्तित्व-कृतित्व संबंधी लेख तथा डॉ. रमेशचन्द्र जैन के योगदान संबंधी फोटोग्राफ्स सादर आमंत्रित हैं। फोटोग्राफ्स् समुचित उपयोग के बाद वापिस लौटा दिये जायेंगे। संपर्क सूत्र- डॉ. जयकुमार जैन, ४२९, पटेल नगर, मुजफ्फरनगर (उ.प्र.)। डॉ. नेमिचन्द्र जैन, पूर्व प्राचार्य, गुरुकुल रोड, खुरई जिला-सागर (म.प्र.)। डॉ. शीतलचन्द्र जैन, प्राचार्य नीलगिरि मार्ग, मानसरोवर, जयपुर (राज.)
डॉ. सुरेन्द्रकुमार जैन, एल-६५, न्यू इंदिरानगर, बुरहानपुर (म.प्र.)
सितम्बर 2007 जिनभाषित 23
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