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________________ ग्रन्थ- समीक्षा इष्टोपदेश- भाष्य एवं अध्यात्मयोगी मुनि श्री विशुद्धसागरजी " इष्टोपदेश इक्यावन गाथाओं का यथानाम तथा गुणवाला एक लघुकाय आध्यात्मिक ग्रन्थ है, जो पं. आशाधर जी की संस्कृत टीका के साथ माणिकचन्द्र ग्रन्थमाला मुम्बई से प्रकाशित हुआ था, बाद में इसका तृतीय संस्करण ('मुख्तार' युगवीर और अनुवादक पं. परमानन्द शास्त्री थे) की प्रति अवलोकनार्थ मिली। इसके रचयिता श्री पूज्यपाद स्वामी का उल्लेख श्रवणबेलगोल के शिलालेख में नहीं है, फिर भी कृति अपने महत्त्व को स्वतः ख्यापित करती है। श्री पूज्यपाद स्वामी ५वीं व ६वीं शताब्दी के लब्धप्रतिष्ठ तत्त्व- द्रष्टा आचार्य रहे। आपके गुरु द्वारा प्रदत्त नाम 'देवनन्दी' था, जो प्रकर्ष बुद्धि के धनी और विपुल ज्ञानधारी होने से 'जिनेन्द्रबुद्धि' नाम से भी विश्रुत हुए। बाद में जब से उनके युगलचरण, देवताओं द्वारा पूजे गये बुधजनों के द्वारा वे 'पूज्यपाद' नाम से प्रसिद्धि को प्राप्त हुए । प्राचार्य पं. निहालचन्द जैन अध्यात्म चेता जैनसंत हैं, विषयों से विरक्त परमतपस्वी हैं जिन्होंने इसका भाष्य लिखा और द्रव्यानुयोग आगम ग्रन्थों के सन्दर्भों से युक्त यह 'इष्टोपदेश - भाष्य' जो आपके चिन्तन और अध्यात्म की अतुल गहाराई में उतरकर अनुभूति का शब्दावतार है। मुनिश्री का यही चिन्तन आपके प्रवचनों में मुखर होता है। समताभाव और आडम्बरहीन आपकी सालभर चलने वाली दिनचर्या है। जो भी बोलते हैं- अनेकान्त की तुला पर तौलकर बोलते हैं निश्चय और व्यवहार का समरसी समन्वय आपकी पीयूष वाणी से झरता है । यह मुनि श्री की वाणी का अद्भुत चमत्कार है प्रवचन के समय अध्यात्मरसिक श्रोता भाव-विभोर हो सुनता है और एकदम सन्नाटा छाया रहता है । आगम में अल्पज्ञान हो तो विवाद पैदा करता है, यदि तत्त्व की पकड़ दोनों नयों से भली-भांति की गयी है, और कौन नय कब प्रधान है कब गौण है, इस सापेक्षता को मुनिश्री अपने भेदविज्ञान विवेक से भली-भांति जानते हैं । कहीं कोई विवाद, शङ्का और संदेह नहीं उठता जब आपकी ज्ञानधारा अविरल प्रवाहित होती है। श्री विशुद्धसागर जी ऐसे दि. जैनसंत हैं जिनकी स्याद्वादवाणीरूपी गंगा, निश्चय और व्यवहार नयकूलों को संस्पर्शित करती हुई प्रबुद्धजनों के हृदय में उतर जाती है । अध्यात्म के सूक्ष्म भावों को सहजता से व्याख्यापित कर देना केवल पांडित्य से सम्भव नहीं है, वहाँ सम्यक्त्व की शुद्धात्मानुभूति और समत्वभावों की फलश्रुति काम करती है। शक संवत् १३५५ में उत्कीर्ण श्रवणवेलगोल शिलालेख नं. ४० (६४), १०५ (२५४), एवं १०८ (२५८) में आपका मुक्तकण्ठ ये यशोगान किया गया है। आपको अद्वितीय औषधिऋद्धि के धारक बताया गया है। कहते हैं आपने ऐसा रसायन खोजा था, जिसे पैरों के तलुवों में लेपनकर विदेहक्षेत्र जाकर, वहाँ स्थित जिनेन्द्र भगवान् के दर्शन करने से आपका शरीर पवित्र हो गया था। जिनके चरण धोए जल - स्पर्श से एकबार लोहा भी सोना बन गया था। आप समस्त शास्त्र विषयों में पारंगत थे और कामदेव को जीतने के कारण योगियों ने आपको 'जिनेन्द्रबुद्धि' नाम से पुकारा । आप महान् वैयाकरणी (जैनेन्द्र व्याकरण के रचयिता ) थे । श्री जिनसेनाचार्य ने लिखा- "जिनका वाड्मय शब्दशास्त्ररूपी व्याकरणतीर्थ, विद्वज्जनों के वचनमल को नष्ट करने वाला है, वे देवनन्दी कवियों के तीर्थंकर हैं । 'विदुषां वाङ्मल ध्वंसि' गुणसंज्ञा से आपको विभूषित किया गया था। इस भाष्यकार संत में मैंने एक निरालेपन 'संत व्यक्तित्व' की झलक देखी है। आज जब एक आचार्य संघ के साधुगण, दूसरे आचार्य संघ के साधु गणों से आत्मीय सौजन्यता नहीं रख पा रहे हैं इतना ही नहीं एक ही कुल के साधुगणों में आत्मीय वात्सल्य दिखाई नहीं देता है, ऐसे में यदि दो संघों के साधुओं में मिलन होता है तो वह एक महोत्सव से कम नहीं लगता। उस मिलनमहोत्सव के क्षणों में श्रावक भी प्रसन्नता का अनुभव करता है । अध्यात्मयोगी विशुद्धसागर जी के दीक्षा गुरु आचार्य श्री विरागसागर जी महाराज हैं परन्तु अपने प्रवचनों में जहाँ, सर्वार्थसिद्धि- आपकी सिद्धान्त में परम निपुणता को, 'छन्दशास्त्र' बुद्धि की सूक्ष्मता को व रचनाचातुर्य को तथा 'समाधिशतक' स्थित प्रज्ञता को प्रकट करता है, वहाँ 'इष्टोपदेश', आत्मस्वरूप सम्बोधनरूप अध्यात्म की गवेषणात्मक प्रस्तुति है। पूज्य मुनि श्री विशुद्धसागर जी एक । उनकी अटूट श्रद्धा संतशिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी 20 सितम्बर 2007 जिनभाषित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524320
Book TitleJinabhashita 2007 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2007
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size5 MB
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