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________________ किया है। विद्वानों का कथन है कि बौद्धधर्म तो जैनधर्म | मिथ्यात्व, निर्माण १, वर्ण आदि ४, भय, जुगुप्सा, अगुरुलघु, से निकला है। तैजसशरीर, कार्मणशरीर, उपघात ४७। जिस जीव का जैनशास्त्र दर्शनसार में महात्मा बुद्ध को जैनाचार्य | | प्रथम गुणस्थान है उसके तो इन ४७ का निरंतर बंध होता पिहिताश्रव (जो भ. पार्श्वनाथ के तीर्थ में हुये थे) का शिष्य रहता है। ऊपर के गुणस्थानों में मिथ्यात्वादि का बंध मुनि बुद्धकीर्ति के नाम से कहा गया है। . यथायोग्य होना रुक जाता है। उपरोक्त सभी प्रमाणों के अनुसार महात्मा बुद्ध पहले जहाँ तक ज्ञानावरणीय कर्म की पांचों प्रकृतियों के जैनमुनि बने थे। परन्तु जैनमुनि की कठिन चर्या न पाल | बंध का प्रश्न है, इनका बंध तो दशवें गुणस्थानवर्ती मुनिराज सकने के कारण उन्होंने बौद्धमत चलाया था। यह बौद्धग्रंथों तक सभी जीवों के निरंतर प्रतिसमय होता ही रहता है। से ही सिद्ध होता है। अतः हम और आप स्वाध्याय कर रहे हों, या व्यापार में प्रश्नकर्ता- नरेन्द्र शाह सोलापुर लगे हों, ज्ञानावरणीय की पांचों प्रकृतियों का बंध प्रतिसमय जिज्ञासा- जब हम स्वाध्याय करते होते हैं तब भी | होना ही है। अंतर इतना अवश्य होता है कि स्वाध्याय करते क्या ज्ञानावरणीय कर्म का बंध निरंतर होता रहता है? | समय, कषायों की मंदता होने से, कर्म प्रकृतियों में स्थिति समाधान- वर्तमान में सभी जीवों के, चाहे वे किसी | तथा अनुभाग बंध कम होता है, और सांसारिक कार्य करते भी गति के हों (विदेहक्षेत्र एवं विजयाध निवासियों को | समय कषायों की तीव्रता होना स्वाभाविक होने से स्थितिछोड़कर) प्रथम से सप्तम गुणस्थान तक ही (अपनी अनुभाग बंध अधिक होता है। ज्ञानावरणीय कर्म की योग्यतानुसार) पाये जाते हैं। इन सभी जीवों के आयु के | प्रकृतियों का स्थिति व अनुभाग बंध कम होना, आत्मा अपकर्ष काल में आठों कर्मो का तथा अपकर्षकाल के | के लिये श्रेयस्कर है। अतः स्वाध्याय आदि कार्यों में प्रवृत्त अलावा अन्य काल में आयु के अलावा सातों कर्मो का | होना ही श्रेष्ठ है। प्रतिसमय बंध होता है। इन सात कर्मों की निम्नलिखित 1/205, प्रोफेसर्स कॉलोनी, प्रकृतियाँ निरन्तरबंधी (ध्रुवबंधी) हैं आगरा (उ.प्र.) ज्ञानावरण ५, दर्शनावरण ९, अंतराय ५, कषाय १६, । पर्युषण पर्व हेतु आमंत्रण शीघ्र भेजें की दिगम्बर जैन श्रमण संस्कृति संस्थान सांगानेर से श्रमण संस्कति पोषक. कशल वक्ता. आर्षमार्गीय विद्वान विगत दस वर्षो से जैनधर्म की प्रभावना के लिए देश-विदेश के विभिन्न स्थानों से आमंत्रित किये जाते हैं। इस वर्ष यह पर्व दिनांक 16.09.07 से 25.09.07 तक समस्त जैनधर्मानुयायी बंधुओं द्वारा हर्षोल्लास पूर्वक मनाया पर विधि-विधान एवं प्रवचनार्थ विद्वानों के आमंत्रण हेतु अपना आमंत्रण पत्र दिनांक 31.08.07 तक संस्थान कार्यालय में प्रेषित करें, जिससे समय रहते समुचित व्यवस्था की जा सके। पं. आलोक मोदी 'जैदर्शनाचार्य' श्री दिगम्बर जैन श्रमण संस्कृति संस्थान, सांगानेर, जयपुर (राजस्थान) फोन : 0141-2730552, मो. 093142 92842, 09887867822 प्रथमे नार्जिता विद्या, द्वितीये नार्जितं धनम्। तृतीये नार्जितं पुण्यं, चतुर्थे किं करिष्यति॥ जिसने बाल्यावस्था में विद्या नहीं पढ़ी, युवावस्था में धन नहीं कमाया, और वृद्धावस्था में धर्मसाधन नहीं किया वह मरने के समय क्या करेगा? (समय के दुरुपयोग का फल) अगस्त 2007 जिनभाषित 29 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524319
Book TitleJinabhashita 2007 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2007
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size5 MB
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