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आचार्य श्री विद्यासागर जी
के दोहे
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55 न्यायालय में न्याय ना, न्यायशास्त्र में न्याय। झूठ छूटता, सत्य पर, टूट पड़े अन्याय॥
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कर पर कर धर करणि कर, कल-कल मत कर और। वरना कितना कर चुका-कर मरना ना छोर॥
65 यान करे बहरे इधर, उधर यान में शान्त। कोरा कोलाहल यहाँ, भीतर तो एकान्त ॥
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सरज दरज हो भले. भरी गगन में धल। सर में पर नीरज खिले, धीरज हो भरपूर ॥
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सीमा तक तो सहन हो, अब तो सीमा पार। पाप दे रहा दण्ड है, पड़े पुण्य पर मार॥
57 सौ-सौ कुम्हड़े लटकते, बेल भली बारीक। भार नहीं अनुभूत हो, भले संघ गुरु ठीक॥
58 जिसके स्वामीपन रहे, नहीं लगे वह भार। निजी काय भी भार क्या लगता कभी कभार?॥
59 कर्त्तापन की गन्ध बिन, सदा करे कर्त्तव्य। स्वामीपन ऊपर धरे, ध्रुव पर हो मन्तव्य॥
60 सन्तों के आगमन से, सुख का रहे न पार। सन्तों का जब गमन हो, लगता जगत असार॥
61 सुन, सुन गुरु-उपदेश को, बुन बुन मत अघजाल। कुन-कुन कर परिणाम तू, पुनि पुनि पुण्य सँभाल॥
62 निर्धनता वरदान है, अधिक धनिकता पाप।। सत्य तथ्य की खोज में, निर्गुणता अभिशाप॥
63 नीर नीर है क्षीर ना, क्षीर क्षीर ना नीर। चीर चीर है जीव ना, जीव जीव ना चीर॥
बान्धव रिपु को सम गिनो, संतों की यह बात। फूल चुभन क्या ज्ञात है! शुल चुभन तो ज्ञात ॥
68 क्षेत्र काल के विषय में, आगे पीछे और। ऊपर नीचे ध्यान हूँ, ओर दिखे ना छोर॥
69 स्वर्ण-पात्र में सिंहनी, दुग्ध टिके नाऽन्यत्र। विनय पात्र में शेष भी, गुण टिकते एकत्र॥
70 परसन से तो राग हो, हर्षण से हो दाग। घर्षण से तो आग हो, दर्शन से हो जाग॥
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माँग सका शिव माँग ले, भाग सका चिर भाग। त्याग सका अघ-त्याग ले, जाग सका चिर जाग ॥
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साधु-सन्त कृत शास्त्र का, सदा करो स्वाध्याय। ध्येय, मोह का प्रलय हो, ख्याति-लाभ व्यवसाय॥
'पूर्णोदयशतक' से साभार
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