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आचार्य श्री
विद्यासागर जी
के दोहे
37
शील, नसीले द्रव्य के सेवन से नश जाय । संत - शास्त्र - संगति करे, और शील कस जाय ॥ 38
जठरानल अनुसार हो, भोजन का परिणाम । भावों के अनुसार ही, कर्म-बन्ध-फल-काम ॥
39
नस नस मानस रस, नसे, नसे मोह का वंश । लसे हृदय में बस भले, जिनोपासना अंश ॥
40 यम-संयम - दम-नियम ले, कर आगम अभ्यास । उदास जग से, दास बन प्रभु का सो संन्यास ॥
41
गुरु चरणों की शरण में, प्रभु पर हो विश्वास । अक्षय-सुख के विषय में, संशय का हो नाश ॥
42
स्वयं तिरे, ना तारती कभी अकेली नाव । पूजा नाविक की करो, बने पूज्य तब नाव ॥
43
नहीं व्यक्ति को पकड़ तू, वस्तु-धर्म को जान । मान तथा बहुमान विराटता का गान ॥
44
वर्ण लाभ वरदान है, संकर से हो दूर । नीर - दूध में ले मिला, आक-दूध ना भूल ॥
45
गगन चूमते शिखर हैं, भू-स्पर्शी क्यों द्वार ? बता जिनालय ये रहे, नत बन, मत मद धार ॥
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46
सार-सार का ग्रहण हो, असार को फटकार । नहीं चालनी तुम बनो, करो सूप-सत्कार ॥
47
नयन-नीर लख नयन में, आता यदि ना नीर । नीर पोंछना पूछना, उपरिल उपरिल पीर ॥
48
बड़े-बड़े ना पाप हों, बड़ी-बड़ी ना भूल । चमड़ी दमड़ी के लिए पगड़ी पर क्यों धूल ? |
49
एक तरफ से मित्रता, सही नहीं वह मित्र । अनल पवन का मित्र, ना पवन अनल का मित्र ॥ 50
विगत अनागत आज का, हो सकता श्रद्धान । शुद्धातम का ध्यान तो घर में कभी न मान ॥
51
मात्रा मौलिक कब रही, गुणवत्ता अनमोल । जितना बढ़ता ढोल है, उतनी बढ़ती पोल ॥
52
चाव-भाव से धर्म कर, उज्ज्वल कर ले भाल। माल नहीं पर भाव से, बन तू मालामाल ॥
53
मोही जड़ से भ्रमित हो, ज्ञानी तो भ्रम खोय । नीर उष्ण हो अनल से, कहाँ उष्ण हिम होय ॥
54
सागर का जल तप रहा, मेघ बरसते नीर । बह-बह वह सागर मिले, यही नीर की पीर ॥
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'पूर्णोदयशतक' से साभार
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