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________________ मूर्ति निर्माण की प्राचीन रीति स्व. पं. मिलापचन्द्र जी कटारिया आज कल हम देखते हैं कि जिस किसी बन्धु यात्रानुकूल नक्षत्रे सुलग्ने शोभने दिने॥ ६८॥ जिनमूर्ति की प्रतिष्ठा करानी होती है, वह यदि मूर्ति बड़े जाने से पहिले वहाँ उच्छव करे और शुभ निमित्तों परिमाण की चाहता हो या और कोई विशेष प्रकार की | को देखे। फिर उत्तम लग्न और शुभ दिन में अनुकूल नक्षत्र चाहता हो और वैसी बनी बनाई तैयार मूर्ति कारीगरों के | के होते यात्रा करे। यहाँ नहीं मिलती हो तो प्रतिष्ठा से बहुत पहिले ही किसी (आगे ७ श्लोक में यात्रा मुहुर्त सम्बन्धी ज्योतिष कारीगर को साई देकर वे कीमत तय करके उसका सौदा का विषय लिखा है। विस्तारभय से वह कथन यहाँ छोड़ा कर लिया जाता है और जो साधारण प्रतिमा की ही प्रतिष्ठा जाता है।) करानी होती है तो प्रतिष्ठा के आस-पास के वक्त में ही गच्छत्वेवं प्रयत्नेन सम्यगन्वेषयेच्छिलां। बनी बनाई मूर्ति किसी कारीगर से खरीद ली जाती है। प्रसिद्धपुण्यदेशेषु नदी नगवनेषु च ॥ ७६ ॥ जहाँ पंचकल्याणक प्रतिष्ठा का महोत्सव होता है वहाँ भी प्रसिद्ध पुण्य स्थानों, नदी, पर्वत, वनों में जाकर वहाँ तैयार मूर्तियाँ लेकर बेचने को कितने ही कारीगर लोग पहुँच | यत्न के साथ अच्छी तरह से प्रतिमा बनाने योग्य पाषाण जाते हैं। उनसे भी कितने ही जैनी भाई मूर्तियाँ खरीदकर को ढूँढना चाहिए। प्रतिष्ठा करवा लेते हैं। आज कल सर्वत्र ऐसा ही आम श्वेता रत्ताऽसिता पीता मिश्रा पारावतप्रभा। रिवाज हो गया है। इस विषय में शास्त्रोक्त गार्ग क्या है मुद्गकापोतपद्माभा मंजिष्ठाहरिताप्रभा॥७७॥ उसे लोग भूल से गये हैं। आज से करीब सवासात सौ कठिना शीतला स्निग्धा, सुस्वादा सुस्वरा दृढा। वर्ष पूर्व के बने पं. आशाधरजी के प्रतिष्ठा पाठ में इस सगंधात्यंततेजस्का मनोज्ञा चोत्तमा शिला॥७८ ॥ विषय में जो कथन किया गया है उसको देखने से मालूम वह शिला जिससे कि प्रतिमा बनाई जायेगी सफेद, होता है कि आज की यह प्रथा पुराने जमाने में नहीं थी। लाल, काली, पीली, कर्बुरी, सलेटिया, मुंगिया, कबूतरिया, इस विषय में जैसा कथन आशाधरजी ने किया है वैसा कमल जैसे रंग की, मंजीठ के रंग जैसी और हरे रंग की ही प्राय: वसुनन्दी ने भी स्वरचित प्रतिष्ठा सार संग्रह ग्रन्थ होनी चाहिए। और वह कठिन, ठण्डी, चिकनी, उत्तम स्वाद में किया है। यह प्रतिष्ठा पाठ अभी तक मुद्रित नहीं हुआ वाली, उत्तम आवाज की (झोजरी न हो) मजबूत, अच्छी है। गंधवाली, अत्यन्त चमकीली, मनोहर और उत्तम होनी __ मूर्ति घड़ाने के लिये जंगल में जाकर खान से पाषाण | चाहिए। कैसा हो और किस विधि से लाया जावे और कैसे कारीगर मद्वी विवर्ण दग्धा वा लघ्वी रूक्षा च धूमिला। निःशब्दा बिंदुरेखादिदूर्षिता वर्जिता शिला॥७९॥ से मूर्ति घड़ाई जावे इत्यादि कथन जो इन प्रतिष्ठा ग्रन्थों में लिखा मिलता है उसकी जानकारी आधुनिक जैन समाज जो कमल, कुवर्ण, जली हुई, हल्की, रूखी, धूमिल, को नहीं के बराबर है। अतः मैं यहाँ उस प्रकरण को | बिना आवाज की और बिंदुरेखादि दोषोंवाली हो ऐसी शिला वसुनंदिकृत प्रतिष्ठा पाठ से लिखता हूँ। यह वर्णन उसके प्रतिमा बनाने के काम में नहीं लेनी चाहिए। तीसरे परिच्छेद में है। परीक्ष्यैवं शिलां सम्यक् तत्र कृत्वा महोत्सवम्। पूजां विद्या शस्त्राग्रं हूंकारेणाभि मंत्रयेत्॥८०॥ गृहे निष्पाद्यमाने च निष्पन्ने भावयिष्यति।। शिलां बिंबार्थमानेतुं गच्छेच्छिल्पि समन्वितः॥६७॥ परीक्षा से उत्तम शिला मिल जाय तो खान में से जिनमंदिर बन रहा हो उसके पर्ण होने में अभी थोडा उस शिला को काटने के पहिले वहाँ भलीप्रकार उच्छव काम बाकी हो तब ही प्रतिमा बनाने के लिए पाषाण लेने | के साथ पूजा विधान करके जिस शस्त्र से शिला को काटनी को शिल्पी के साथ जावे। हो उस शस्त्र के अग्रभाग को 'ओम् हूं फट् स्वाहा' इस | मंत्र से मंत्रित कर लेवें। कृत्वा महोत्सवं तत्र निमित्तान्य वलोक्य च। जून-जुलाई 2007 जिनभाषित 13 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524318
Book TitleJinabhashita 2007 06 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2007
Total Pages52
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size5 MB
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