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चातुर्मास का नियम
स्व. पं. जुगलकिशोर जी मुख्तार
दिया जायगा । अस्तु ।
दिगम्बर सम्प्रदाय में इस वर्षाकालीन नियम की क्या मर्यादा है, इसका कुछ पता हाल में मुझे 'भगवती आराधना' की अपराजित सूरि विरचित 'विजयोदया' नाम की प्राचीन टीका के देखने से चला है। इस टीका में, भगवती आराधना की 'अच्चेलक्कुद्देसिय' नाम की गाथा में वर्णित जैनमुनियों के दस स्थितिकल्पों का वर्णन करते हुए पज्यो ( पर्या) नाम के दसवें स्थिति कल्प का स्वरूप इसप्रकार दिया है
" पज्यो श्रमणकल्पो नाम दशमः वर्षाकालस्य चतुर्षु मासेष्वेकत्रावस्थानं भ्रमणत्यागः स्थावरजंगमजीवाकुला हि तदा क्षितिस्तदा भ्रमणे महानसंयमः, वृष्ट्या शीतवातपातेन चात्मविराधना एते वा (?) वाप्यादिषु स्थाणुकंटकादिभिर्वा प्रच्छन्नैर्जलेन कर्दमेन वा बाध्यते, इति विंशत्यधिकं दिवसात मेकत्रावस्थानमित्युत्सर्गः । कारणापेक्षया तु हीनमधिकं यतिधर्मसंग्रह | वाऽवस्थानं । संयतानामाषाढशुद्धदशम्यां स्थितानामुपरिष्टाच्च कार्तिकषौर्णमास्यास्त्रिंशद्दिवसावस्थानं वृष्टिबहुलतां श्रुतग्रहणं शक्त्यभावं वैयावृत्यकरणं प्रयोजनमुद्दिश्य अवस्थानमेकत्रेति उत्कृष्टः कालः । मार्यां दुर्भिक्षे ग्रामजनपदचलने वा गच्छनाशनिमित्ते समुपस्थिते देशान्तरं यांति, अवस्थाने सति रत्नत्रयविराधना भविष्यतीति । पौर्णमास्यामाषाढ्यामतिक्रान्तायां प्रतिपदादिषु दिनेषु यावच्च त्यक्ता विंशतिदिवसा एतदपेक्ष्य हीनता कालस्य । एष दशमस्थितिकल्पः ।"
अर्थात् - वर्षाकाल के चार महीनों में भ्रमणत्यागरूप जो एकत्र अवस्थान है वह पज्यो (पर्या) नाम का दसवाँ श्रमणकल्प है। उन दिनों में पृथिवी स्थावरजंगम जीवों से आकुलित होती है इससे उस समय भ्रमण करने में महान् असंयम होता है, वृष्टि तथा ठंडी हवा लगने से आत्मविराधना होती है और प्रच्छन्न स्थाणु- कंटकादि के द्वारा तथा जल और कर्दम से बाधा पहुँचती हैं, इसलिये एक सौ बीस दिन का यह एकत्र अवस्थानरूप उत्सर्ग काल का विधान है। कारण की अपेक्षा से हीनाधिक अवस्थान भी होता है। आषाढ़ सुदि दशमी को स्थिति होने वाले साधुओं का अधिक अवस्थान कार्तिकी पौर्णमासी से तीन दिन बाद तक होता है, यह अवस्थान वर्षा की अधिकता, श्रुतग्रहण, शक्ति के अभाव और वैय्यावृत्यकरण नाम के प्रयोजनों में से किसी प्रयोजनों को लेकर होता है और यह अवस्थान का उत्कृष्ट काल है। मरी पड़ने, दुर्भिक्ष फैलने, ग्राम तथा जून - जुलाई 2007 जिनभाषित 11
बहुत प्राचीन काल से साधुजन वर्षाकाल में, जिसे चातुर्मास अथवा चौमासा कहते हैं, अपने विहार को रोककर एक स्थान पर ठहरते आए हैं और इसमें उन की प्रधान दृष्टि अहिंसा की रक्षा रही है। इस नियम का पालन केवल जैन साधु ही नहीं बल्कि हिन्दुधर्म के साधु भी किया करते थे। उनके शास्त्रों में भी इस विषय की स्पष्ट आज्ञाएँ पाई जाती हैं, जैसा कि अत्रि ऋषि के निम्न वाक्यों से प्रकट है
'वर्षाष्वेकत्र तिष्ठेत स्थाने पुण्यजलादृते । आत्मवत्सर्वभूतानि पश्यन् भिक्षुश्चरेन्महीम् ॥' असति प्रतिबन्धे तु मासान्वै वार्षिकानिह । निवसामीति संकल्प्य मनसा बुद्धिपूर्वकम् ॥ प्रायेण प्रावृषि प्राणिसंकुलं वर्त्म दृश्यते । आषाढ्यादिचतुर्मासं कार्तिक्यन्तं तु संवसेत् ॥
अर्थात् वर्षाकाल में भिक्षु को पुण्य जल से घिरे हुए किसी एक स्थान पर रहना चाहिये और सर्व प्राणियों आत्मवत् समझते हुए पृथिवी को देख शोध कर चलना चाहिये || 'कोई खास प्रतिबन्ध न होने पर वर्षा काल के महीनों में मैं यहाँ रहूँगा' ऐसा उसे बुद्धिपूर्वक संकल्प करना चाहिये। वर्षाकाल में मार्ग प्रायः जीवजन्तुओं से घिरा रहता है, इससे आषाढी पौर्णमासी से कार्तिकी पौर्णमासी तक एक जगह ठहरे रहना चाहिये विहार अथवा पर्यटन नहीं करना चाहिये ।
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हाँ, बुद्धदेव ने शुरू-शुरू में अपने साधुओं के लिये चातुर्मास का कोई नियम नहीं किया था, उनके साधु वर्षाकाल में इधर उधर विचरते और विहार करते थे तब जैनों तथा हिन्दुओं की तरफ से उन पर आपत्ति की जाती थी और कहा जाता था कि ये कैसे अहिंसावादी साधु हैं जो ऐसी रक्त-मांस मय हुई मेदिनी पर विहार करते हैं और असंख्य जीवों को कुचलते हुए चले जाते हैं। इस पर बौद्ध साधुओं ने अपनी इस निन्दा और अवज्ञा को बुद्धदेव से निवेदन किया और उस वक्त से बुद्धेदेव ने उन्हें भी चातुर्मास का नियम पालन करने की आज्ञा दे दी थी, ऐसा उल्लेख बौद्ध साहित्य में पाया जाता । यह उल्लेख इस समय मेरे सामने नहीं परंतु इसका हाल मुझे विद्वद्वर पं. बेचर दासजी से मालूम हुआ है, जो प्राप्त होने पर प्रकट कर
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