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________________ सयमसार / गाथा- 'रागो दोसो मोहो / १७७ - १७८ ) एक जिज्ञासु ने स्व. पं. रतनचन्द्र जी मुख्तार से इस विसंगति का समाधान चाहा था। मुख्तार जी ने समाधान में कहा - "इसका ऐसा अभिप्राय ज्ञात होता है कि क्षायिकसम्यग्दृष्टि ही क्षपकश्रेणी में चारित्रमोहनीय कर्म का क्षयकर पूर्ण वीतरागी हो सकता है, अतः क्षायिकसम्यग्दर्शन को वीतराग कहा है। क्षयोपशम सम्यग्दृष्टि और उपशमसम्यग्दृष्टि चारित्रमोह का क्षय नहीं कर सकते, अतः उनके सम्यग्दर्शन को सरागसम्यग्दर्शन कहा है।" (पं. रतनचन्द्र मुख्तार : व्यक्तित्व एवं कृतित्व / भाग १ / पृ.३६७) । मेरा विचार है कि अकलंकदेव ने औपशमिक और क्षायोपशमिक सम्यग्दर्शनों से क्षायिकसम्यग्दर्शन की यह उत्कृष्टता बतलाने के लिए कि उसे प्राप्त करनेवाला शीघ्र ही मुक्ति प्राप्त करता है, प्रथम दो को सरागसम्यक्त्व और क्षायिक को वीतरागसम्यक्त्व शब्दों से अभिहित किया है, जो उपचार मात्र है, परमार्थ नहीं । ५. प्रशस्तराग, अनुकम्पा, अकालुष्य का नाम शुभोपयोग आचार्य कुंदकुंद ने पंचास्तिकाय में प्रशस्तराग, अनुकम्पा (दुःखीजनों के प्रति कारुण्यभाव) और अकालुष्य (क्रोधादि के मन्दोदय में उत्पन्न विशुद्धपरिणाम या चित्तप्रसाद = प्रशमभाव ) को शुभोपयोग कहा हैरागो जस पत्थो अणुकंपासंसिदो य परिणामो । चित्तम्हि णत्थि कलुषं पुण्णं जीवस्स आसवदि ॥ १३५ ॥ पंचास्तिकाय । प्रशस्तराग का लक्षण उन्होंने इस प्रकार बतलाया है अरहंतसिद्धसाहुसु भत्ती धम्मम्मि जा य खलु चेट्ठा । अणुगमणं पि गुरुणं पत्थरागो त्ति वुच्चति ॥ १३६ ॥ पंचास्तिकाय । अनुवाद - "अरहंत, सिद्ध और साधुओं के प्रति भक्ति, धर्म (व्यवहारचारित्र) में प्रवृत्ति और गुरुओं का अनुगमन ( उनके अनुकूल चलना) प्रशस्तराग कहलाता है। ६. सम्यग्दृष्टि का प्रशस्तराग भी क्षायोपशमिकभाव आचार्य अमृतचन्द्र जी ने उक्त गाथा (१३६) की टीका में धर्म का अर्थ व्यवहारचारित्र का पालन बतलाया है- "धर्मे व्यवहारचारित्रानुष्ठाने वासनाप्रधाना चेष्टा ।" (पं. का/ गा.१३६) । और अरहंतादि पंचपरमेष्ठियों के प्रति भक्ति सरागसम्यक्त्व का अंग है, यह पूर्व में निर्दिष्ट किया जा चुका है। इससे स्पष्ट है कि चतुर्थ गुणस्थान से लेकर सप्तम गुणस्थान के प्रवृत्तिपरक भाग तक होनेवाले सम्यक्त्व, संयमासंयाम (देशचारित्र) एवं संयम (महाव्रतादिरूप चारित्र ) प्रशस्तराग हैं। अत: इन गुणस्थानों में होनेवाला प्रशस्तराग, सम्यग्दर्शनरूप प्रशस्तराग की अपेक्षा औपशमिक, क्षायोपशमिक और क्षायिक भाव है तथा चारित्र की अपेक्षा क्षायोपशमिक भाव है। स्व. पं. रतनचन्द्र जी मुख्तार ने भी लिखा है- " श्री कुंदकुंद आचार्य ने 'पंचास्तिकाय' की उपर्युक्त गाथाओं में पुण्यास्रव के तीन कारण बतलाये हैं- १. प्रशस्तराग, २. अनुकम्पा, ३. अकलुषता। तीनों ही सम्यग्दर्शन के गुण हैं। 'प्रशस्तराग' संवेग और भक्ति का नामान्तर है। 'अकलुषता' उपशम या प्रशम का पर्यायवाची है । सम्यग्दर्शन आठ गुण इस प्रकार हैं- "संवेगो णिव्वेओ ।" (पं. रतनचन्द्र मुख्तार व्यक्ति एवं कृति./ भा. २/पृ. १४८६) । यह गाथा पूर्व में उद्धृत है। मुख्तार जी इसी ग्रंथ के पृष्ठ १४८७ पर लिखते हैं- "पुण्यास्रव के कारणभूत प्रशस्तराग, अनुकम्पा और अकलुषता, ये सम्यग्दर्शन के गुण होने से मोक्षमार्ग में सहकारी कारण हैं । " ७. औपशमकादिभावों से निर्जरा, इसलिए शुभोपयोग से निर्जरा आगम में कहा गया है कि औदयिकभाव बंध के कारण हैं और औपशमिक, क्षायिक एवं क्षायोपशमिक भाव मोक्ष के । पारिणामिकभाव न बंध का कारण है, न मोक्ष का - 8 जून - जुलाई 2007 जिनभाषित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524318
Book TitleJinabhashita 2007 06 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2007
Total Pages52
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size5 MB
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