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करता हूँ, जिसकी युक्तता अथवा अयुक्तता के विषय में मुझे कुछ भी आग्रह नहीं है। बहुत संभव है कि ये दोनों एक ही व्यक्ति हों । भद्रबाहु - प्रथम के काल में मूलसंघ का जो भाग दक्षिण की ओर न जाकर उज्जैन में रुक गया था, उसने परिस्थिति से बाध्य होकर अर्धफालकसंघ का रूप धारण कर लिया था, जो वि० सं० 136 तक उसी रूप में विचरण करता रहा। --- हो सकता है कि वि० सं० 136 में इस संघ के आचार्य शान्त्याचार्य हों और उनके शिष्य जिनचन्द्र हों । शान्त्याचार्य ने जब संघ से प्रायश्चित्तपूर्वक अपना स्थितीकरण करने की बात कही, तो इन्होंने कुछ षड्यन्त्र करके उन्हें मरवा दिया और बेधड़क होकर अपना शैथिल्यपोषण करने के लिए सांगोपांग श्वेताम्बरसंघ की नींव डाल दी । यद्यपि उस समय वासना से प्रेरित होकर इन्होंने यह घोर अनर्थ कर डाला, तथापि ब्रह्महत्या का यह महापातक इनके अन्तष्करण को भीतर ही भीतर जलाने लगा । बहुत प्रयत्न करने पर भी जब वह शान्त नहीं हुआ, तो ये दिगम्बरसंघ की शरण में आये, क्योंकि अपनी ज्ञानगरिमा तथा तपश्चरण के कारण उस समय आचार्य माघनन्दी का तेज दिशाओं-विदिशाओं में व्याप्त हो रहा था। गुरु के चरणों में लोटकर आत्मग्लानि से प्रेरित हो, आपने अपने दुष्कृत्य की घोर भर्त्सना की और खुले हृदय से आलोचना करके उनसे प्रायश्चित्त देने के लिए प्रार्थना की। मित्र शत्रु-समचित्त, परमोपकारी गुरु ने उनके हृदय को शुद्ध हुआ देखकर उन्हें समुचित्त प्रायश्चित दिया और उन्हें पुनः दीक्षा देकर अपने संघ में सम्मिलित कर लिया। 5-6 वर्ष पर्यन्त उग्र तपश्चरण करके जिनचन्द्र ने अपनी समस्त कालिमाएँ धो डालीं और जिनेन्द्र के समीचीन शासन में चन्द्र की भाँति उद्योत फैलाने लगे। सकल संघ के साथ अपने गुरु के भी वे विश्वासपात्र बन गये, बिल्कुल उसी प्रकार जिस प्रकार कि ब्राह्मण इन्द्रभूति भगवान् महावीर के। गुरुप्रवर माघनन्दी ने स्वयं अपने हाथों से वी० नि० 614 में उन्हें संघ के पट्ट पर आसीन कर दिया और उनकी छत्रछाया में सकलसंघ ज्ञान तथा चारित्र में उन्नत होने लगा । इस घटना के 8-9 वर्ष पश्चात् वी० नि० 623 ( ई० सन् 96 ) में कुन्दकुन्द ने उनसे दीक्षा धारण की।
"दिगम्बरसंघ के आचार्य बन जाने के कारण अवश्य ही इनके ऊपर श्वेताम्बरसंघ की ओर से कुछ आपत्तियाँ आयी होंगी, जिन्हें इन्होंने समता से सहन किया । परन्तु शिष्य होने के नाते कुन्दकुन्द उन्हें सहन न कर सके और आचार्यपद पर प्रतिष्ठत होते ही श्वेताम्बरसंघ के इस अनीतिपूर्ण दुर्व्यवहार को रोकने तथा अपने संघ की रक्षा करने के लिए उन्होंने उसके साथ मुँह - दर - मुँह होकर शास्त्रार्थ किया । कुन्दकुन्द के तप तथा तेज के समक्ष वह संघ टिक न सका और लज्जा तथा भयवश उसे अपनी प्रवृतियाँ रोक लेनी पड़ीं।" (जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश / भाग 1 / परिशिष्ट 4 / जिनचन्द्र / पृष्ठ 490 ) ।
अयुक्तियुक्त कल्पना
क्षुल्लक जिनेन्द्रवर्णी जी ने स्वयं इसे अपनी एक क्लिष्ट (संगत प्रतीत न होनेवाली) कल्पना कहा है। निश्चित ही यह एक अयुक्तियुक्त कल्पना है। यह निम्नलिखित हेतुओं से सिद्ध होता है
क- शान्त्याचार्य के शिष्य जिनचन्द्र थे और उन्होंने शान्त्याचार्य का वध कर श्वेताम्बरसंघ की स्थापना की थी, यह 'भावसंग्रह' (प्राकृत) के कर्त्ता दिगम्बर आचार्य देवसेन ( 933-955 ई०) की कल्पना है। श्वेताम्बरमत में श्वेताम्बरसम्प्रदाय का प्रवर्तक किसी जिनचन्द्र को नहीं माना गया है । अन्तिम अनुबद्ध केवली जम्बूस्वामी के निर्वाण के पश्चात् दिगम्बरों और श्वेताम्बरों की आचार्यपरम्परा भिन्न-भिन्न हो जाती है । जहाँ दिगम्बरपरम्परा में अन्तिम अनुबद्ध केवली जम्बूस्वामी के बाद प्रथम श्रुतकेवली विष्णु का नाम है, वहाँ श्वेताम्बरपरम्परा में आचार्य प्रभव का उल्लेख है। ( श्री देवेन्द्र मुनि शास्त्री : जैन आगम साहित्य मनन और मीमांसा / पृष्ठ 562 ) । इससे सिद्ध होता है कि आचार्य प्रभव श्वेताम्बरसंघ के संस्थापक थे । किन्तु अन्तिमश्रुत केवली भद्रबाहु (वीर नि० सं० 162) के समकालीन आचार्य स्थूलभद्र को श्वेताम्बरपरम्परा में अन्त्यन्त महत्त्व दिया गया है और श्वेताम्बर, विद्वान् डॉ० सागरमल जी ने लिखा है कि "दक्षिण का अचेल निर्ग्रन्थसंघ भद्रबाहु की परम्परा से और उत्तर का सचेल निर्ग्रन्थसंघ
4 मार्च 2007 जिनभाषित
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