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________________ सम्पादकीय आचार्य कुन्दकुन्द पर आक्षेप चुप रहकर अनुमोदना न करें मेरे पास श्री पी.के.जैन, पी. के. ट्रेवल्स, जैन टेम्पल रोड, डीमापुर - 797112, नागालैण्ड (फोन 03862-231619, फैक्स - 03862-225532 ) द्वारा प्रकाशित एवं प्रेषित एक 40 पृष्ठीय पुस्तिका आयी है, जिसका शीर्षक है 'दिगम्बर जैन धर्म में और कितने पन्थ?' इसमें डीमापुर में विराजमान एक दिगम्बर जैनाचार्य की आगमप्रतिकूल प्रवृत्तियों पर गहरा क्षोभ व्यक्त किया गया है और उससे ज्ञात होता है कि वहाँ के जिनशासनभक्त प्रबुद्ध वर्ग ने आचार्य जी की उक्त प्रवृत्तियों के विरोध में सशक्त आवाज उठायी है। इस वर्ग में स्थानीय विद्वान् पं० उत्तमचन्द्र जी शास्त्री, प्रतिष्ठाचार्य एवं पं० महेश जी शास्त्री भी सम्मिलित हैं और इस वर्ग के अभियान को प्राचार्य नरेन्द्रप्रकाश जी, पूर्व सम्पादक- 'जैन गजट', पं० रतनलाल जी बैनाड़ा, आगरा, श्री कपूरचन्द्र जी पाटनी, सम्पादक- 'जैनगजट' आदि विद्वानों एवं बहुसंख्यक श्रेष्ठिसमुदाय ने समर्थन दिया है। यह एक शुभ लक्षण है । बहुत दिनों बाद विद्वद्वर्ग एवं श्रावकवर्ग जागा है, और इनके मन में जैनधर्म को नष्ट होने से बचाने की चिन्ता व्यापी है, जिसके फलस्वरूप इन्होंने जिनशासन को कलंकित कर उसकी अन्त्येष्टि के लिए प्रयत्नशील तत्त्वों के विरोध में मोर्चा खोल लिया है। 2 उक्त पुस्तिका में उपर्युक्त आचार्य महोदय की जिनागमविरोधी अनेक प्रवृत्तियों का वर्णन किया है, किन्तु मैं यहाँ उनकी एक ही प्रवृत्ति की चर्चा करूँगा । पुस्तिका में कहा गया है कि " उक्त आचार्य जी और उनके शिष्यों ने इस परम्परागत मंगलाचरण से 'कुन्दकुन्दाद्यो' पाठ हटाकर उसके स्थान में 'पुष्पदन्ताद्यो' पाठ रख दिया है और इस परिवर्तित रूप में ही वे मंगलचारण करते हैं।" यह कथन बिलकुल सत्य है । बहुत दिनों से आचार्य कुन्दकुन्द को बहिष्कृत करने का यह प्रयास चल रहा है। इसका औचित्य सिद्ध करने के लिए उन आचार्य जी और उनके शिष्यों ने आचार्य कुन्दकुन्द पर घृणित आक्षेप किये है। एक आक्षेप का उल्लेख करते हुए शोधादर्श के ख्यातनामा भूतपूर्व सम्पादक स्व० श्री अजितप्रसाद जी जैन अपने सम्पादकीय में लिखते हैं मङ्गलं भगवान् वीरो मङ्गलं गौतमो गणी । मङ्गलं कुन्दकुन्दाद्यो जैनधर्मोऽस्तु मङ्गलम् ॥ " 'श्री दिगम्बर जैन मंदिर जी के प्रांगण में पूज्य आचार्य श्री पुष्पदंतसागर महाराज के परमप्रिय शिष्य पूज्य मुनि श्री सौरभसागर महाराज का प्रवचन था । मुनिश्री ने प्रवचन प्रारम्भ करने के पूर्व मंगलश्लोक का वाचन इस प्रकार किया मार्च 2007 जिनभाषित " धर्मचर्चा के समय हमने मुनिश्री से परम्परागत मंगलश्लोक में उपर्युक्त संशोधन करने के विषय में जिज्ञासा की, तो उनका उत्तर था कि "यह श्लोक किसी प्राचीन आचार्यकृत नहीं है। यह तो दिगम्बरों ने वैष्णवों द्वारा प्रयुक्त मंगलश्लोक (मङ्गलं भगवान् विष्णु, मङ्गलं पुण्डरीकाक्षो - - - ) या श्वेताम्बरों के द्वारा अपनाये गये मंगलश्लोक (--- मङ्गलं स्थूलभद्राद्यो ---) की नकल में गढ़ लिया है। कुन्दकुन्द तो एकान्तवादी थे--- । यदि हम अपने गुरुवर्य से, जिन्होंने हमें उँगली पकड़कर चलना सिखाया, सबके मंगल की कामना करते हैं, तो इसमें बुराई क्या है?" (शोधादर्श - 48 / नवम्बर 2002 ई० / पृष्ठ 11-12)। Jain Education International मङ्गलं भगवान् वीरो मङ्गलं गौतमो गणी । मङ्गलं पुष्पदन्ताद्यो जैनधर्मोऽस्तु मङ्गलम् ॥ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524315
Book TitleJinabhashita 2007 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2007
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size5 MB
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