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श्री मुनिसुव्रतनाथ - स्तवन
(शिखरिणी छन्द)
1
अहो मैं क्या गाऊँ अमृतमय गाथा दमकता । उषा की आभा ज्यों सकल जगती को सुखदाता ॥ सुगंधी पुष्पों की महक सम कीर्ति बहती । अनेकों जीवों में सहज उर में ज्योति जलती ॥
2
मुनीद्रों के स्वामी मुनिसुव्रत तीर्थंकर प्रभो । फँसे हैं कर्मों के दलदल महा दुर्दर विभो ॥ कृपा के धारी हैं अखिल जग ही नाम जपता । सभी बेचारों के तब शरण में हो सफलता ॥
3
घने काले काले अघमय सघन घन उठ रहे । निबारूँ मैं कैसे बहुत भयकारी लग रहे ॥ विशुद्धी भावों की तब स्मरण से जागृत हुई। स्तुती के द्वारा तो झर-झर झरे कर्म सब ही ॥
4
बहे सर्वाङ्गो से मधुर भय वाणी अमृत सी । असंख्यातों प्राणी श्रवण कर के शीतल हुये ॥ भ्रमितों को सच्चे प्रशस्त पथ का दर्शन हुआ। पुरुषार्थी जीवों का अनुपम सु यो पन्थ लगता ॥
5
महाअज्ञानी मैं विविध गति का भाजन हुआ । सुमिथ्यात्वी होकर अपरिमित पापास्रव हुआ । करूँ सम्यक् आस्था अनुपम विशुद्धी प्रगट हो। यही मेरी इच्छा सकल अघ ही पुण्यमय हो ॥
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● मुनि श्री योगसागर जी
श्री नमिनाथ-स्तवन (द्रुतविलम्बित छन्द)
1
जय प्रभो नमिनाथ जिनेश्वरा । सकल संसृति के अघविनाशक शान्ति भविक भवसागर
परमेश्वरा ॥ प्रदायका ।
तारका ॥
2
स्वपर - बोधकता तव रूप है । सहज शान्ति कषाय-अभाव है ॥ हृदय को परिवर्तन जो करे । जगत् में अति दुर्लभतम
वरे ॥
3
विषमयी कलिकाल प्रभाव मरण को करता तब नाम अशुभ को शुभ में क्षण में करे । पवन बादल को लय ज्यों करे ॥
को ।
को ॥
4
स्तवन के जल में लवलीन है। दुरित तो धुलता स्वयमेव है ॥ इसलिए दिनरात स्तुती करे । पतितपावन का यह द्वार रे ॥
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5
प्रार्थना ।
भावना ॥
चरणपंकज में मम प्रबल शक्ति जगे यह वह समाधि महोत्सव पृथक् आत्मस्वरूप निहारलूँ ॥
देखलूँ ।
प्रस्तुति - रतनचन्द्र जैन
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