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________________ हमारी अजीब सी स्थिति वोट की राजनीति हम कर नहीं सकते, क्योंकि हम अल्पसंख्यक हैं। घोषित अल्पसंख्यकों को जो सुविधाएँ और रियायतें दी जाती है, वे इसलिए कि उनके वोट बहुत हैं और वे वास्तव में बहुसंख्यक हैं। हमें अल्पसंख्यक होते हुए भी उन अधिकारों का लाभ नहीं, क्योंकि हम बहुसंख्यक में गिने जाते हैं । हम धनी माने जाते हैं, लेकिन हमसे ज्यादा समृद्धशालियों की संख्या अन्य समाज में है। महावीर भगवान् के २६०० वें निर्वाण महोत्सव में हमें धनी मानकर मात्र सौ करोड़ आवंटित होते हैं, और खालसावर्ष पर छह सौ करोड़ स्वीकृत होते हैं। मैं नहीं मानता कि सिक्खसमुदाय कम धनी है । किन्तु उनके पास धन के साथ-साथ कृपाण भी है देश में मुस्लिम केन्द्रीय विश्वविद्यालय हैं, जिनका अरबों का बजट केन्द्र सरकार वहन करती है। कई हिन्दू विश्वविद्यालय . जिनका पूरा बजट सरकारी है। इस तरह के अनेक उदाहरण हैं । हम हमेशा एक जैन विश्वविद्यालय को रोते हैं। किसी तरह बजट भी अपना बना लें, तो मान्यता को रोते हैं। आखिर ऐसा होता क्यों है? मैं मानता हूँ कि इस तरह की पीड़ा हर जैन की है। ये वो विडम्बना है जिससे हम आप कहीं न कहीं रूबरू होते रहते हैं और आपस में ही कह सुनकर घुटते रहते हैं । I हमारा समाजिक ढाँचा मजबूत नहीं है यह कहने में कोई बुरायी नहीं है कि महज पैसा किसी भी समाज को मजबूत नहीं बनाता। समृद्धि कई तरह से होना चाहिए। मैं मानता हूँ कई स्तरों पर जैन समाज का सामाजिक ढाँचा कमजोर है। उसका सबसे बड़ा कारण है कि हमारा चिन्तन सामूहिक चिन्तन नहीं है, वह व्यक्तिगत चिन्तन हैं। हम धर्म और समाज के प्रत्येक कार्य के लिए साधु समाज पर पूर्णत: निर्भर हैं। इसीलिए हमारे नेतृत्व में अपरिपक्वता झलकती है। साधुओं की अपनी मर्यादायें और लक्ष्य हैं। हम जबरन उन्हें अपनी हर योजनाओं में घसीटते हैं। उनका दखल अच्छा भी लगता है। हमें प्रेरणा, मार्गदर्शन और आशीर्वाद की खासी आवश्कता है, लेकिन यह दखल यहीं तक सीमित नहीं रहता। पोस्टरों पर यही शीर्षक होता है, लेकिन दरअसल पूरा नेतृत्व इन्हीं का होता है । समाज कुछ नहीं करता, सिवाय आदेश पालन के। ऐसे वक्त में हम 'थोड़ी बहुत सफलता प्राप्त करके खुश हो जाते हैं। कई स्थलों पर इन्हीं के कारण इतने विवादों में घिर जाते हैं कि विकास में लगने वाला धन और शक्ति इन विवादों को निपटाने में खर्च हो जाती है। दरअसल हम लोग समाज Jain Education International विकास के बारे में उस तरीके से नहीं सोचते हैं, जैसे कि अपने परिवार या व्यवसाय के विकास के बारे में सोचते हैं योजनायें बनाते हैं और उन्हें क्रियान्वित करने के लिए प्रबल पुरुषार्थ करते हैं। अधिकांश लोग समाज की बुराई ही करते नजर‍ आते हैं, बिना यह सोचे कि समाज कोई व्यक्ति नहीं है बल्कि समूह है और वे सभी भी समाज में आते हैं, वे एक इकाई हैं, जिनसे मिलकर ही समाज बनता है। हम और आप ही मिलकर समाज बनाते हैं। हमारी आपकी कमियों एवं खूबियाँ ही समाज की कमियाँ एवं खूबियाँ बनती हैं। पैसा तो सबके पास है आज पैसा सबके पास है। उच्च आयवर्ग की संख्य प्रत्येक मजहब व समाज में बढ़ी है। गणना की जाये तो जैन मन्दिरों की अपेक्षा हिन्दू मन्दिरों की संख्या ज्यादा है। उनमे पैसा भी जैन मन्दिरों की अपेक्षा कई गुना ज्यादा है। हम एक-एक तीर्थ को बचाने या विकास करने के लिए जगहजगह चन्दे की गुहार लगाते हैं, तब जाकर कहीं मुश्किल से काम चलाऊ धन एकत्रित होता । हिन्दूमन्दिरों में भोग् और चढ़ावा ही इतना ज्यादा आता है कि मन्दिर तो दूर‍ पुजारियों के भी महल बन जाते हैं। टाटा, बिरला, मित्तल अम्बानी आदि सैकड़ों देश के सबसे बड़े उद्योगपति जैन नहीं हैं। विरला मंदिर देश में सर्वाधिक हैं, जो चन्दे से नही बनते हैं । कहने का मतलब यह कि हम बिना वजह उस बात में मार दिये जाते हैं, जो बात सिर्फ हम पर लागू नही होती, इसके हकदार हर वर्ग के लोग हैं। मुसलमानों की मस्जिदों, सिक्खों के गुरुद्वारों के पास कितना फण्ड रहता है इसका हिसाब किसके पास है ? मांसाहारी होने का आरोप कितना सही है? हमारे स्वभिमान तथा चरित्र पर सबसे बड़ा आरोप जो आजकल लगने लगा है, वह है मांसाहारी होने का। अभी हाल ही में 'अहा ! जिन्दगी' नामक पत्रिका के फरवरी ०७ के अंक में मेनका गाँधी ने अपने एक लेख की शुरुआत ही कुछ इन शब्दों से की है- 'टूरिस्टों को कुछ तो हो जाता है जैसे कुछ जैन पर्यटक भी छुट्टियों में जब विदेश घूमने जाते हैं, तो वहाँ मांस खाने लगते हैं।' दबे स्वरों में हमारे आसपड़ोसी भी इस प्रकार के अन्य अनेक आरोप तो हमारे ऊपर लगाते ही रहते हैं, किन्तु खुलेआम इस प्रकार एक प्रतिष्ठित पत्रिका के एक लेख में मेनका गाँधी द्वारा की गयी यह टिप्पणी संभवत: प्रथम बार है। मैं समझता हूँ आज के इस विपरीत परिवेश में भी जैन समाज में शुद्ध शाकाहारियों का मार्च 2007 जिनभाषित 21 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524315
Book TitleJinabhashita 2007 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2007
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size5 MB
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