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वर्षायोग
प्राचार्य पं. नरेन्द्रप्रकाश जी जैन
आगम-ग्रथों में साधु के दस कल्पों का उल्लेख मिलता साधु निरंतर परद्रव्यों से भिन्न अपने आत्मस्वरूप में है। इन दस कल्पों के नाम हैं- अचेलकत्व, उद्दिष्ट आहार- स्थिर रहने की कोशिश करता रहता है। इस स्थिरता में त्याग, सत्याग्रह, राजपिण्ड, कृतिकर्म, व्रत, ज्येष्ठ, प्रतिक्रमण, | बाधक तत्व मोह है। उसे जीतने से ही वह निर्मोही कहलाता मासैकवासिता और पद्म । 'पद्म' नामक दसवें स्थितिकल्प | है। गृहस्थ अपनी मानसिक दुर्बलता या अज्ञान के कारण में वर्षायोग या चातुर्मास की व्यवस्था समाहित है। मोह का शिकार होता रहता है। हाँ, कोशिश करने पर साधु
वर्षाऋतु में चारों ओर हरियाली छा जाती है। जमीन | समागम से उसे मोह को जीतने की प्ररेणा मिलती है। हरी-हरी घास से ढक जाती है। मिट्टी की आर्द्रता के योग से संयोग और वियोगजन्य दुःखों (अहंकार या कारण अनेक जीव-जन्तु उत्पन्न होने लगते है। जीवहिंसा- | आर्तरौद्रध्यानादि) से छुटकारा मिलता है। योग से प्राप्त होने विरति के प्रति सतत सावधान साधुगण इन चार महीनों में | वाला यह सबसे बड़ा लाभ ही है। आगम में कहा है कि व्यर्थ गमनानगमन नहीं करते। अनियतविहारी होते हुए भी | | वायुरहित स्थान पर जैसे दीपक की लौ अकम्प और ऊर्ध्वगामी चार माह तक किसी एक ही स्थान पर रह कर आत्मसाधना | रहती है, वैसे ही योग-दशा में परिणाम अचल और उच्चादर्श करते है। यही उनका वर्षायोग या चातुर्मास कहलाता है। | की ओर उन्मुख रहते हैं।
कल्प का अर्थ है- "या कुशलेन परिणामेन बाह्य- वर्षायोग सद्गृहस्थों को धर्म-साधन के लिए एक वस्तु-प्रतिसेवना स कल्पः" अर्थात् कुशल परिणाम से | अच्छा अवसर प्रदान करता है। उन्हें साधुओं के प्रवचन (सावधानी के साथ / विवेकपूर्वक) बाह्य वस्तुओं का जो | सुनने, आहार-दान देने, उनकी वैयावृत्ति करने और संयम सेवन किया जाता है, उसका नाम कल्प है। यह एक धारण करने के, अनेक प्रेरक क्षण प्राप्त होते है। इन क्षणों में वीतरागता-पोषक कदम है। साधु जानता है कि राग से | उनके पुण्य में वृद्धि होती है तथा पाप-भार हलका होता है। कर्म-बंध होता है। इन चार महीनों में उसे बस्ती के लागों के जीवन को संस्कारित करने के लिए वर्षायोग एक वरदान के सम्पर्क में निरन्तर रहना पड़ता है। इन सम्पर्कों में भी वह | समान है। मन से अनासक्त रहने का अभ्यास करता है। इसी को आज वर्षायोग ने एक खर्चीले उत्सव का रूप ले लिया कुशल परिणाम कहते हैं। इससे उसके आत्मबल में वृद्धि | है। चातुर्मास का बजट कहीं-कही तो लाखों तक पहुँचने होती है।
लगा है। जिस बस्ती में निम्न या मध्यम आय-वर्ग के लोग 'वर्षायोग' में जो 'योग' शब्द है, वह बड़े मार्के का
अधिक रहते हैं, उनके लिए इतना खर्च जुटा पाना मुश्किल है। गणितशास्त्र में योग का अर्थ होता है जोड २+२-४।
होता है। अत: वह बस्ती तो किसी साधु के वर्षायोग के सुख धर्मशास्त्र के अनुसार आत्मा का आत्मा से मिलन योग
से प्रायः वंचित ही रहती है। वर्षायोग में आयोजक चन्देकहलाता है। सामान्य लोग प्रायः शरीरजीवी होते हैं। वे
चिट्ठे के लिए इतने अधिक निमित्त/बहाने जुटा लेते हैं कि हमेशा शरीर की अपेक्षा से ही सोचते-विचारते हैं। उनके
लोग ऊब जाते हैं। बड़े लोग भी कभी-कभी अनमने भाव चिन्तन का रूप है
से चंदा बोलते या लिखते हुए देखे जाते हैं । सामाजिक मानमैं सुखी-दुखी, मैं रंक-राव, मेरे धन-गृह-गोधन प्रभाव।
| मर्यादा के नाते वे स्वयं को एक अपरिहार्य विवशता के चक्र मेरे सुत-तिय मैं सबल-दीन, बेरूप-सुभग मूरख प्रवीन॥
में फँसा हुआ अनुभव करते है। कुछ साधुजनों को भी इसमें तन उपजत अपनी उपज जान, तन नशत आपको नाश मान। रस आता है। इससे वर्षायोग का आनन्द भी लोगों के मन में रागादि प्रकट जे दुःख दैन, तिन ही को सेवत गिनत चैन। एक कसक सी छोड़ जाता है।
__ आत्मजीवी साधु का चिन्तन गृहस्थ से भिन्न होता हमने देखा है कि चातुर्मास के लिए किसी संत के है। वह विचारता है
पास प्रार्थना करने के लिये जाते समय लोगों के मन में जल पय ज्यों जिय तन मेला, पै भिन्न-भिन्न नहिं भेला। जितना उत्साह और हर्ष रहता है, चातुर्मास शुरू होने के बाद त्यों प्रकट जुदे धन-धामा, क्यों द्वै इक मिल सुत रामा॥ | धीरे-धीरे उसमें कमी आने लगती है और एक स्थिति तो
-फरवरी 2007 जिनभाषित 7
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