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________________ के समान २८ मूल गुण होते हैं। आर्यिकाओं का पांचवाँ संयमासंयम गुणस्थान होता है। अतः उनके संयम नहीं होता हैं। सर्वार्थसिद्धि (नवम अध्याय सूत्र १) की टीका में आचार्य पूज्यपाद लिखते हैं- "असंयमस्त्रिविधः अनंतानुबंध्या प्रत्याख्यानप्रत्याख्यानोदयविकल्पात"आगे लिखा है___ "प्रत्याख्यानावरणक्रोधमानमायालोभानां चतुसृणां प्रकृतीनां प्रत्याख्यानकषायोदयकारणासंयमास्रावाणामेकेन्द्रियप्रभृतयः संयतासंयतावसाना बन्धकाः।" असंयम तीन प्रकार का होता है- अनंतानुबंधी के उदय से, अप्रत्याख्यानावरण के उदय से और प्रत्याख्यानावरण कषाय के उदय से होने वाला।आर्यिकाओं के प्रत्याख्यानावरण कषाय का उदय होता है, इसलिए उनके तीसरे प्रकार का असंयम होता है। मोक्षपाहुड़ गाथा १२ की टीका में लिखा है- "स्त्रीणामपि मुक्तिर्न भवति महाव्रताभावात् ।' स्त्रियों के अर्थात् आर्यिकाओं के महाव्रत नहीं होते हैं। प्रवचनसार गाथा २२५ की तात्पर्यवृत्ति में यह प्रश्न उठाया है कि यदि आर्यिकाओं के मोक्ष नहीं है, तो उनके महाव्रतों का आरोप कैसे किया है। इसके समाधान में लिखा है कि उनके महाव्रतों का आरोप उपचार से किया है। कुल (साधुसंघ की) व्यवस्था मात्र के लिए उपचार से महाव्रत कहे जाते हैं। आगे स्पष्ट किया है 'नोपचारः साक्षाद् भवितुमर्हति' उपचार वास्तविक नहीं होता है। आचारसार में (अध्याय २ श्लोक ८९ में) लिखा है 'देशव्रतान्वितिस्तासामारोप्यन्ते बुधैस्ततः। महाव्रतानि सज्जातिज्ञप्त्यर्थमुपचारतः॥' देशव्रतों से युक्त आर्यिकाओं में सज्जाति की ज्ञप्ति के लिए उपचार से महाव्रत आरोपित किए जाते हैं। उनके वास्तव में तो देशव्रत ही हैं, उपचार से महाव्रत कहे गए हैं । ऐसे तो ग्रंथों में श्रावकों के भी सामायिक के काल में एवं दिग्व्रत की मर्यादा के क्षेत्र के बाहर उपचार से महाव्रत कहे गए हैं, किंतु जैसे ये वास्तव में महाव्रती नहीं हैं, वैसे ही वास्तव में आर्यिकाएँ भी महाव्रती नहीं हैं। __ श्री पाटनी जी ने लेख में आर्यिकाओं के अपनी स्त्रीपर्याय के सर्वोत्कृष्ट संयम होने के कारण नवधा भक्ति किया जाना आवश्यक कहा है, किंतु यह कथन भी आगमसम्मत नहीं है । स्त्रीपर्याय का उत्कृष्ट संयम होते हुए भी वह संयमासंयम ही है, मुनियों के समान सकलसंयम नहीं है। तिर्यंच पर्याय का उत्कृष्ट संयम, देश संयम होने से वह सकल संयम तो नहीं माना जा सकता। पंचम काल के अंत तक आर्यिकाओं का अस्तित्व भी उनकी नवधा भक्ति के औचित्य को सिद्ध नहीं करता। इस प्रकार श्री पाटनी जी वस्तुतः अपने लंबे लेख में आर्यिकाओं की नवधा भक्ति के संबंध में कोई ठोस आगम प्रमाण प्रस्तुत नहीं कर पाये हैं। वस्तुतः दिगम्बर जैन मान्यता के मूल तात्त्विक सिद्धांत, जो श्वेताम्बर जैन मान्यता से इसकी भिन्नता सिद्ध करते हैं, वे सवस्त्र-मुक्ति -निषेध, स्त्रीमुक्तिनिषेध एवं केवली-कवलाहार-निषेध है। वस्तुतः दिगम्बर मुनिवेश के रूप में पुरुष और सवस्त्र आर्यिका के रूप में स्त्री की शारीरिक संरचनाओं के आधार पर एवं बाह्य परिग्रह के आधार पर आध्यात्मिक योग्यताओं में भारी गुणात्मक अंतर है और इसीलिए उनके प्रति विनय की अभिव्यक्ति के प्रकार में भी मौलिक अंतर होना ही चाहिए। ____ आचार्य कुंदकुंद ने तो प्रवचनसार (२२५-८) में कहा है कि सम्यग्दर्शन में शुद्धि, सूत्र का अध्ययन तथा तपश्चरण रूप चारित्र, इनसे संयुक्त भी स्त्री को कर्मों की संपूर्ण निर्जरा नहीं कही है। धवला पु.१/९३/३३३/१ में द्रव्यस्त्री के मुक्ति का निषेध करते हुए हेतु दिया है कि वस्त्रसहित होने से स्त्रियों के संयतासंयत गुण स्थान होता है, अतएव उनके संयम की उत्पत्ति नहीं हो सकती। आगे कहा है उनके भावसंयम भी नहीं है, क्योंकि भावसंयम मानने पर उनके भावसंयम का विरोधी वस्त्र आदि का ग्रहण करना नहीं बन सकता है। दिगम्बर जैनधर्म के सातिशय प्रभावक आचार्य कुंदकुंद ने सर्वथा आरंभपरिग्रह से विरक्त दिगम्बर मुनि को ही वंदना योग्य बताते हुए शेष वस्त्र धारक साधकों-क्षुल्लक, ऐलक तथा आर्यिकाओं को इच्छाकार के ही योग्य घोषित किया है। महाशास्त्र धवला में फरवरी 2007 जिनभाषित 3 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524314
Book TitleJinabhashita 2007 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2007
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size5 MB
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