________________ रजि न. UPHIN/2006/16750 अरहनाथ स्तवन (शार्दूल विक्रीडित) मल्लिनाथ स्तुति (श्री छन्द) 1 A 1 बाल यतीन्द्रा मनहर काया। ब्रह्म-स्वरूपा विजित-कषाया। विश्व कल्याणी परम विरागी। बोध हमें दो हम सब रागी॥ 2 इन्द्र निहारे सहस दृगों से। तृप्ति न पायी इन नयनों से॥ सूरज चन्दा सब शर्माये। उज्ज्वल ज्योत्स्ना अनुपमाये॥ है आश्चर्य अपूर्व जीवन कथा कैसे कहूँ शब्द में। अर्हत मन्मथ चक्रवर्ती पद से शोभित थे लोक में॥ था वैराग्य अपूर्व सर्वस्व तज के निर्ग्रन्थ दीक्षा लिए। ऐसे श्री अरहनाथ तीर्थंकर हमें सन्मार्ग-मार्तण्ड दें॥ 2 कैसे अद्भुत भावना प्रगट ते स्वर्गीय लक्ष्मी तजे। आस्था की महिमा अचिन्त्य लख के मोक्षार्थी आत्मा भजे // जो संसार स्वरूप को समझते वे गर्त में ना गिरे। सारा वैभव नाशवान् पल में जो दु:ख के रूप रे॥ 3 बाह्याभ्यन्तर वीतराग झलके आदर्श सा रूप है। धर्मों में जयवन्त तीर्थ तव है ये विश्व का धर्म है॥ ऐसा धर्म महान् ही सकल जो पापारि को जीतता। ये है शस्त्र अमोघ मोह रिपु को जीवित ना छोड़ता। 4 संसारी हम, आप के स्तवन से सम्यक्त्व हीरा मिले। होता भीतर ज्ञानसूर्य उदयी मिथ्या-घटायें टलें। आत्मा तो भयमुक्त सा अनुभवे काषायिकी मन्दता। दुश्चिन्ता मन में न उठती वैराग्य ही जागता॥ 3 जन्म लिया था जब मिथिला में। पुष्पफलों से तरुवर झूमे // वैर तजे थे वनचर प्राणी। चहूँ दिशा में मथुर सुवाणी॥ 4 चन्द दिशों में तप बल जागा। मोहविशाचा डर कर भागा॥ अक्षयज्ञानी तिमिर नशा के। दुःख निवारे भविक जनों के॥ UMAAVA 5 पर्वोपार्जित पुण्य के उदय में बोधि मिली आपकी। है पीयूष समान शान्ति मिलती वाञ्छा नहीं अन्य की॥ नाना आकुलता मिटें स्वयं ही पर्याय बुद्धि हटे। ऐसा भाव उठे विशुद्ध निज में तेरी कृपा ना हटे॥ सार्थक नामी प्रभु जिन मल्ली। काम-विजेता अघमल धो ली। मंगलदायी पदकमलों में। ध्यान लगा के स्वरस चलूँ मैं। प्रस्तुति-रतनचन्द्र जैन स्वामी, प्रकाशक एवं मुद्रक : रतनलाल बैनाड़ा द्वारा एकलव्य ऑफसेट सहकारी मुद्रणालय संस्था मर्यादित, 210, जोन-1, एम.पी. नगर, भोपाल (म.प्र.) से मुद्रित एवं 1/205 प्रोफेसर कॉलोनी, आगरा-282002 (उ.प्र.) से प्रकाशित। संपादक : रतनचन्द्र जैन। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org