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________________ सरगुजा का जैन पुरातत्त्व वैभव प्रो. उत्तमचन्द्र जैन गोयल छत्तीसगढ़ के सरगुजा की रामगढ़ पहाड़ी शैलगुफाओं, । रामगिरि या रामगढ़ मंदिरों, प्राचीन शिला-प्रवेश-द्वारों, मूर्तियों के भग्नावशेषों | रागगिरि पहाड़ी के ऊपरी भाग पर तीन मंदिर आदि पुरातात्त्विक सम्पदा से समृद्ध है। ये पुरावशेष निश्चित- | भग्नावस्था में देखने को मिलते हैं। पहला मंदिर वरुण देव रूप से सरगुजा जिले में उन्नत कला, संस्कृति तथा सभ्यता | का कहा जाता है। दूसरा मंदिर नष्ट हो चुका है। तीसरा के युग को प्रतिबिम्बित करते हैं। इससे यह प्रमाणित होता है | मंदिर किले के अंतिम भाग पर पत्थरों से निर्मित किया गया कि नि:संदेह सरगुजा किसी बहुत ही सभ्य जाति के लोगों से | है। मंदिर में प्रयुक्त चौकोर पाषाणखण्डों पर अंकित आबाद था। यहाँ प्राचीन काल की शिल्पकला के विशेष अशोककालीन चक्र और जैन तीर्थंकरों के श्रीवत्स चिन्ह चिह्न आज भी मौजूद हैं, जिनके अवलोकन से ज्ञात होता है | आज भी पाये जाते हैं। अनेक स्थानों पर जैन मूर्तियों के कि किसी जमाने में यहाँ के निवासी वर्तमान निवासियों से | परिकर, तोरण, कलश, यक्ष-यक्षियों की मूर्तियाँ, कमल शिल्पविद्या में अधिक निपुण थे। अति प्राचीन काल से | आदि स्तंभों पर उत्कीर्ण हैं। जैन तीर्थंकरों के श्रीवत्स चिन्ह रामगढ़ जैन धर्म एवं संस्कृति के प्रमुख केन्द्र के रूप में इस अंचल में जैनधर्म के प्रभाव के अकाट्य साक्ष्य हैं तथा विख्यात है। यहाँ अनेक धार्मिक घटनायें हुई हैं, जिनसे | प्राचीन जैनमंदिर के अस्तित्व की ओर संकेत करते हैं। ये प्रतीत होता है कि रामगढ़ दिगम्बरजैन मुनियों की तपोभूमि तथ्य इस सत्य को भी रेखांकित करते हैं कि प्राचीन काल में के लिए अत्यधिक अनुकूल था। पहाड़ों को काटकर चैत्य, विहार और मंदिर बनाने की प्रथा रविषेणाचार्य ने अपने ग्रंथ 'पद्मचरित' (रचना ६२४ | थी। यहाँ से १० कि.मी. दूर रेणु नदी के दायें तट पर स्थित ई.)में लिखा है कि सरगुजा के रामगिरि का प्राचीन नाम | ग्राम महेशपुर है, जहाँ प्राचीन खण्डित सभ्यता और संस्कृति वंशगिरि था तथा राम की वसति के कारण उसका नाम | को समाये लगभग १७-१८ टीले विद्यमान हैं, जिनमें अनेक रामगिरि पड़ गया। कालांतर में चन्द्रगुप्त के शासन काल में प्राचीन खण्डित प्रस्तर मूर्तियाँ, ध्वस्त मंदिरों के विशाल एवं सुरक्षात्मक कारणों से यहाँ एक गढ़ या किले का निर्माण अलंकृत पाषाण खण्ड एवं कला कृतियाँ हैं। ग्राम के ५ किया गया, तब से इसकी संज्ञा रामगढ़ हो गई। तब से यही कि.मी. क्षेत्र में सारी पुरातात्त्विक सामग्री फैली हुई है। यहाँ नाम प्रचलित है। इसी रामगढ़ में प्राचीन जैन-संस्कृति के जैन, वैष्णव तथा शैव सम्प्रदाय के छोटे-बड़े ३० मंदिर अमूल्य अवशेष बिखरे पड़े हुए हैं। भग्नावस्था में हैं। यही १०वीं शताब्दी की जैन तीर्थंकर नागपुर के रामटेक तथा सरगुजा के रामगढ़ को ऋषभदेव की पद्मासन में आसीन एवं अलंकृत दुर्लभ प्रतिमा वास्तविक रामगिरि मानने या न मानने के संबंध में तीव्र प्राप्त हुई है। वर्तमान में यह मूर्ति एक पीपल के वृक्ष के नीचे विवाद रहा है। प्रो. का. वा. पाठक ने सन् १९१६ में प्रकाशित निर्मित चबूतरे पर आसीन है। उल्लेखनीय है कि महेशपुर 'मेघदूत' की द्वितीय आवृत्ति में इस स्थान का समीकरण के राजा प्राचीन काल में जब भगवान् आदिनाथ की इस पूर्व मध्यप्रांत की रामगढ़ पहाड़ी से किया है जो अब छत्तीसगढ़ प्रतिमा को हाथी पर लदवाकर अपने महल ले जा रहे थे, तो में है। इतना ही नहीं, एम. वैंकटरामैया तथा अन्यान्य कतिपय मध्य रास्ते में हाथी इसी स्थल पर आकर बैठ गया, जहाँ विद्वानों ने सरगुजा के रामगढ़ पर्वत को रामगिरि के समान वर्तमान में यह प्रतिमा रखी हुई है। आसपास उपलब्ध जैन ग्रहण किया है। प्रतीकों से यहाँ एक से अधिक जैन मंदिरों का अस्तित्व सरगुजा की पुरातात्त्विक धरोहर की विशेषज्ञ डॉ. | प्रमाणित होता है। महेशपुर के जैन मंदिर का संबंध रामगढ़ कुन्तल गोयल ने लिखा है कि कालिदास के पूर्व यद्यपि की जोगीमारा गुफा से भी जोड़ा जाता है। इस अंचल से किसी कवि ने रामगिरि का उल्लेख नहीं किया, किन्तु निर्ग्रन्थ साधुसंघ या जैन तीर्थयात्रियों की श्री सम्मेदशिखर जी कालिदास के परवर्ती कवि रविषेणाचार्य (पद्मचरित/४०/४५) की तीर्थयात्रा को ध्यान में रखते हुए भी यह निष्कर्ष बड़ी तथा उग्रादित्याचार्य (कल्याणकारक, शोलापुर, १९४०) ने इसका वर्णन किया है। महाकवि कालिदास के मेघदूत सहजता से निकाला जा सकता है कि देवदर्शन एवं काव्य के अनेक जैन टीकाकार सरगजा के रामगिरि को ही | विश्रामस्थलों के रूप में रामगढ़ और महेशपुर का चयन | विशेषरूप से जैन परम्परानुसार विकास हेतु किया गया हो। चित्रकूट का उपलक्षक मानते हैं। फरवरी 2007 जिनभाषित 21 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524314
Book TitleJinabhashita 2007 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2007
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size5 MB
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