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________________ वैसी नहीं बदलती। उसके लिए निजी हित उत्पन्न किये । है कि यथार्थ को समझें और ऐसे व्यक्तियों के प्रभाव में न जाते हैं । १०. रक्षा साधन विध्वंस में 'अधर में कुण्डलपुर' आलेख में उक्तानुसार अयथार्थ एवं भ्रम करने वाले कथन किये गये और वह भी विशेषज्ञ बनकर । समीक्षा का यह तरीका धार्मिक एवं सामाजिक दृष्टि एवं न्यायिक दृष्टि से प्रशंसनीय नहीं कहा जा सकता। 'जैन संस्कृति रक्षा मंच' जयपुर के पदाधिकारियों से मैं परिचित हूँ । उसमें सभी विचारधारा के उदार मनीषी हैं। उन्होंने कल्पना भी नहीं की होगी कि संस्कृति संरक्षण के पावन उद्देश्य के कार्य की पहल को समाज का कोई वर्ग/संस्था इसप्रकार विकृतरूप से प्रस्तुत कर समाज एवं संस्कृति के विध्वंस का साधन बनाएगी। विद्वान् पाठकों से साग्रह अनुरोध आयें जो समाज को पंथवाद में विभक्त करते हों। इस दिशा में जैनगजट की भूमिका भी अनेक शंकाओं को जन्म देती है । उसमें संस्कृति संरक्षण के कृत्य को विकृतरूप में प्रस्तुत करने 'अधर में कुण्डलपुर' का धारावाही प्रकाशन प्रारम्भ कर दिया। समय के संदर्भ में नीतियों में परिवर्तन अपेक्षित है। जैन समाज की प्रामाणिकता और श्रमण संस्कृति की पावनता बनाए रखने में सभी का सकारात्मक सहयोग अपेक्षित है। उच्चतम न्यायालय के निर्णय के पूर्व भी धारणा व्यक्त करना असद्भाव का सूचक है। सुधीजन मार्गदर्शन करें। सागर से गौरझामर में पञ्चकल्याणक प्रतिष्ठा थी वहाँ गया। रात्रि के समय एक युवती श्री मन्दिर जी के दर्शन के लिये जा रही थी। मार्ग में सिपाही ने उसके उरस्थल में मजाक से एक कंकड़ मार दिया। फिर क्या था अबला सबला हो गई। उस युवती ने उसके सिर का साफा उतार दिया और लपककर तीनचार थप्पड़ उसके गाल में इतने जोर से मारे कि गाल लाल हो गया। लोगों ने पूछा की बहिन क्या बात है ? वह बोली- इस दुष्ट ने जो पुलिस की वर्दी पहने और रक्षा का भार अपने सिर लिये है मेरे उरस्थल में कंकड़ मार दिया। इस पामर को लज्जा नहीं आती, जो हम अबलाओं के ऊपर ऐसा अनाचार करता है। इतना कहकर वह उस सिपाही से पुनः बोली- 'रे नराधम ! प्रतिज्ञा कर कि मैं अब कभी भी किसी स्त्री के साथ ऐसा व्यवहार न करूँगा । अन्यथा मैं स्वयं तेरे दरोगा के पास चलती हूँ और वह न सुनेंगे तो सागर कप्तान साहब के पास जाऊँगी।' वह विवके शून्य - सा हो गया। बड़ी देर में साहस कर बोला-बेटी ! मुझसे महान् अपराध हुआ क्षमा करो, अब भविष्य में ऐसी हरकत न होगी। खेद है कि मुझे आज तक ऐसी शिक्षा नहीं मिली। युवती ने उसे क्षमा कर दिया और कहा- पिता जी ! मेरी थप्पड़ों का खेद न करना, मेरी थप्पडें तुम्हें शिक्षक का काम कर गईं। अब मैं मन्दिर जाती हूँ, आप भी अपनी ड्यूटी अदा करें। वह मण्डप में पहुँची और उपस्थित जनता के समक्ष खड़ी होकर कहने लगी- 'माताओ और बहनो! आज दोपहर को मैंने शीलवती स्त्रियों के चरित्र सुनें, उससे मेरी आत्मा में वह बात पैदा हो गई कि मैं भी तो स्त्री हूँ। यदि अपनी शक्ति उपयोग में लाऊँ, तो जो काम प्राचीन माताओं ने किये, उन्हें मैं भी कर 20 फरवरी 2007 जिनभाषित अबला नहीं सबला Jain Education International बी- ३६९ ओ. पी. एम., अमलाई (म. प्र. ) ४८४११७ सकती हूँ। यही भाव मेरे रग-रग में समा गया। उसी का नमूना है कि एक ने मेरे से मजाक किया। मैंने उसे जो थप्पड़े दीं, वही जानता होगा और उससे यह प्रतिज्ञा करवा कर आई हूँ कि बेटी ! अब ऐसा असद्व्यवहार न करूँगा ।' बात यह है कि हमारा समाज इस विषय में बहुत पीछे है । हमारे समाज में माता-पिता यदि धनी हुए तो कन्या को गहनों से लादकर खिलौना बना देते हैं। विवाह में हजारों खर्च कर देवेंगे। परंतु बेटी योग्य लड़की बने, इसमें एक पैसा भी खर्च नहीं करेगें। सबसे जघन्य कार्य तो यह है कि हमारे नवयुवक और युवतियों ने विषयसेवन को दाल रोटी समझ रखा है । इनके विषयसेवन का कोई नियम नहीं है, ये न धर्मपर्वों को मानते है और न धर्मशास्त्रों के नियमों को। कहते हुए लज्जा आती है कि एक बालक तो दूध पी रहा है, एक स्त्री के उदर में है और एक बगल में बैठा चें-चें कर रहा है। फल इसका देखो कि सैकड़ों नर-नारी तपेदिक के शिकार हो रहे हैं, अतः यदि जाति का अस्तिव सुरक्षित रखना चाहती हो, तो मेरी बहिनो इस बात की प्रतिज्ञा करो कि हमारे पेट में बच्चा आने के समय से लेकर जब तक वह तीन वर्ष का न होगा, तब तक ब्रह्मचर्यव्रत पालेंगी। यही नियम पुरुषवर्ग को लेना चाहिये । यदि इसको हास्य में उड़ा दोगे, तो तुम हास्य के पात्र ही रहोगे। साथ ही यह भी प्रतिज्ञा करो कि अष्टमी, चतुर्दशी, अष्टान्हिकापर्व, सोलहाकरणपर्व तथा दशलक्षणपर्व में ब्रह्मचर्यव्रत का पालन करेंगी, विशेष कुछ नहीं कहना चाहती। उसका व्याख्यान सुनकर सब समाज चकित रह गया। बाबा भागीरथ जी ने दीपचन्द्र जी वर्णी से कहा कि यह अबला नहीं सबला है। मेरी जीवन गाथा : श्री गणेशप्रसाद जी वर्णी For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524314
Book TitleJinabhashita 2007 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2007
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size5 MB
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