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होता है। यह सब कर्मभूमि का माहात्म्य है। यदि असत्- | तिर्यंच का भी आस्त्रव करते हैं और सरल स्वभाव आदि से पदार्थों का सेवन करते हैं तो नरकायु का बन्ध करते हैं।२९ | मनुष्यायु का भी आस्रव करते हैं।२८
विदेहक्षेत्र निषध और नील के मध्य में स्थित है ऐरावत क्षत्रिय के योग से ऐरावत नाम पड़ा। शिखरी अर्थात् निषध से उत्तर नील पर्वत से दक्षिण और पूर्वापर | पर्वत और पूर्व, पश्चिम और उत्तर तीनों समुद्रों के मध्य समुद्रों के मध्य में विदेहक्षेत्र की रचना है। अढ़ाईद्वीप सम्बन्धी | ऐरावत क्षेत्र है। सम्पूर्ण रचना भरतक्षेत्र के समान है किन्तु पाँच मेरूओं के साथ पाँच भरत और पाँच ऐरावत समान ही | विजयार्द्धपर्वत और रक्ता रक्तोदा नदी के कारण छह खण्डों पाँच विदेह हैं जिनको १६० नगरियों में विभक्त कर वर्णन | में विभक्त है। आयु, शरीर की ऊँचाई आदि भरत क्षेत्र के किया है। उन सभी में भी पाँच-पाँच म्लेच्छ खण्ड तथा | समान हैं। षट्कालपरिवर्तन होता है। कर्मभूमि भी समान है। एक- एक आर्य खण्ड स्थित है। सभी विदेहों के आर्य | भरत, ऐरावत, विदेहक्षेत्रस्थ कर्मभूमिज अबद्धायुष्क खण्डों में सदा दुषमा-सुषमा काल वर्तता है। सभी म्लेच्छ | मनुष्य ही क्षायिक सम्यग्दर्शन की प्रस्थापना व निष्ठापना खण्डों में दुषमा-सुषमा काल होता है। सभी विजयाओं पर | कर सकता है किन्तु भोगभूमि में क्षायिक सम्यग्दर्शन की विद्याधरों की नगरियाँ हैं, उनमें सदैव दुषमा-सुषमा काल | निष्ठापना हो सकती है, प्रस्थापना नहीं।२९ होता है। विदेह के आर्यखण्डों में उत्कृष्टरूप से चौदह | अन्य अनेक विशेषताएँ हैं जो कर्मभूमि में पायी जाती गुणस्थान तक पाये जाते हैं और जघन्यरूप से चार गुणस्थान | हैं जैसे विकलेन्द्रिय व जलचर जीव नियम से कर्मभूमिज तक होते हैं।२° सभी म्लेच्छों में एक मिथ्यात्वगुणस्थान ही | होते हैं। विजयाद्ध पर्वत के निवासी मानव यद्यपि भरतक्षेत्र रहता है।२१ रत्नत्रय की योग्यता आर्यखण्ड के मनुष्यों में ही | के मानवों के समान षट्कर्मों से ही आजीविका करते हैं पायी जाती है।२२ असंयम मनुष्य पर्याप्त अपर्याप्त दोनों होते | परन्तु प्रज्ञप्ति आदि विद्याओं के धारण करने के कारण विद्याधर है।२३ विदेहक्षेत्र के सभी देशों में अतिवृष्टि, अनावृष्टि, | कहे जाते हैं यह उनकी विशेषता है। मूसा, टिडू, चिडिया, स्वचक्र (अपनी सेना), परचक्र (पर | भरत, ऐरावत और विदेह के अतिरिक्त स्वयंभूरमणद्वीप की सेना) ये सात प्रकार की ईतियाँ नहीं होती हैं। रोगमरी | | का आधा भाग और स्वयंभूरमण समुद्र भी कर्मभूमि के आदि भी नहीं होती हैं। कुदेव, कुलिंगी और कुमति वहाँ अन्तर्गत आता है। इसको विशेषरूप से इसप्रकार समझना नहीं पाये जाते हैं। केवलज्ञानी तीर्थंकरादि शलाकापुरुषों और | चाहिए कि स्वयंभूरमण समुद्र के पहिले स्वयंभूरमणद्वीप ऋद्धिधारी साधुओं की सदा सत्ता रहती हैं। तीर्थंकर अधिक आता है। इस द्वीप के बहुमध्यभाग में मानुषोत्तर पर्वत के से अधिक हों तो प्रत्येक देश में एक-एक ही होते है। कम समान वलयाकृति स्वयंप्रभनाम का पर्वत है। इसके कारण से कम सीता और सीतोदा नदी के दक्षिण और उत्तर में एक स्वयंभूरमणद्वीप के दो भाग होते हैं उसके प्रथम (उरले) एक अवश्य होते हैं। इसप्रकार प्रत्येक विदेह में कम से कम | भाग से लेकर मानुषोत्तर पर्वत तक भोगभूमियाँ हैं। उनमें चार होने से पाँच विदेह के २० अवश्य होते हैं।२४ यही | | चार गुणस्थान वाले तिर्यंच जीव होते हैं। पंचम गुणस्थान कारण है कि यहाँ (विदेहक्षेत्र में) सतत धर्मोच्छेद का अभाव | व्रतियों के ही होता है और व्रतों को कर्मभूमियाँ ही ग्रहणकर है अर्थात धर्म की धारा अविच्छिन्नरूप से बहती है। सदा | सकते हैं अन्य नहीं। कर्मभूमियाँ जीव ही इतना पाप बन्ध विदेहीजन (अर्हन्त) होने से ही इसकी विदेहसंज्ञा सार्थक | कर सकता जिससे उसे सप्तम नरक भी जाना पड़ता है।
| स्वयंभरमण नामक अन्तिम समद्र में होने वाले मत्स्य को विदेहक्षेत्रों में मनुष्यों की आयु संख्यातवर्ष की होती | | मारकर सप्तम नरक मिलने का कथन संगत होता है। हैं। शरीर की ऊँचाई पाँच सौ धनुष प्रमाण की होती है। वे भरत, ऐरावत में षट्कालपरिवर्तन होने से भोगभूमि नित्य भोजन करते हैं।२५ उनकी उत्कृष्ट आयु एक कोटि | और कर्मभूमि दोनों पाई जाती हैं। काल की स्थिरता न होने पूर्व और जघन्य आयु अन्तर्मुहूर्त प्रमाण होती है। विदेहक्षेत्र के कारण ईति-भीतियाँ होती हैं। विदेहक्षेत्र में काल की में कर्मभूमि का निरन्तर प्रवर्तन रहने के कारण सुख दु:ख स्थिरता होने से ईति भीति आदि नहीं होती है। सामान्य की मिश्रित स्थिति पायी जाती हैं।२६ तिर्यंचों की भी यही | व्यवस्थाएँ तीनों क्षेत्रों में समान हैं। कर्मभूमि संयम और स्थिति होती हैं।२७ यहाँ के मनुष्य और तिर्यंच सम्यक्त्व | निर्वाण की साधिका होने के कारण भोगभूमि की अपेक्षा सहित अवस्था में देवायु का आस्रव करते हैं, मिथ्यात्व | श्रेष्ठ है। यहाँ जीवों में पुरुषार्थ की विशेषता होती है, वही अवस्था में विपरीत कार्य करने से, खोटी क्रियाएँ करने से | उपादेय है।
- फरवरी 2007 जिनभाषित 11
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