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________________ किसी कारण के स्वाभाविक है।" असि, मषि, कृषि, विद्या, वाणिज्य, शिल्प इन छह कर्मों का चक्रवर्ती भरत के नाम से भरतक्षेत्र संज्ञा सार्थक प्रतीत | उपदेश दिया।६ सम्पूर्ण प्रजा ने भगवान को श्रेष्ठ जानकर नहीं होती। अनादिकालीन संज्ञा विषयक कथन सार्थक और राजा बनाया। राज्य पाकर भगवान ने क्षत्रिय, वैश्य और शद्र युक्ति युक्त है। वर्गों की स्थापना की। छह कर्मों की व्यवस्था होने से कर्मभूमि भरतक्षेत्र में कल्पवृक्षों के नष्ट होने पर कर्मभूमि | कहलाने लगी। विवाह की परिपाटी भी कर्मभूमि से प्रारम्भ प्रकट हुई। इन्द्र ने अयोध्यापुरी के बीच में जिनमन्दिर की | हुई। भगवान् ऋषभदेव का यशस्वती और नन्दा से विवाह स्थापना की थी। इसके बाद चारों दिशाओं में भी जिनमन्दिरों | हुआ। मोक्षमार्ग का प्रवर्तन हुआ। कर्मभूमि में रूढ़ि से चली की स्थापना की गई थी। अनन्तर देश, महादेश, नगर, वन, | अपनी जाति की कन्या के साथ विवाह होने पर और उससे सीमासहित गाँव और खेड़ों आदि की रचना की गई थी। उत्पन्न सन्तान से ही मोक्षमार्ग चलता है। जैसा कि कहा भी कर्मभूमि आने पर भरतक्षेत्र में शलाकापुरुषों की उत्पत्ति | गया है- "देव-शास्त्र-गुरु को नमस्कार कर तथा भाई बन्धुओं शुरू होती है जैसा आचार्य यतिवृषभ लिखते भी हैं- पुण्योदय | की साक्षीपूर्वक जिस कन्या के साथ विवाह किया जाता है" से भरतक्षेत्र में मनुष्यों में श्रेष्ठ और सम्पूर्णलोक में प्रसिद्ध वह विवाहिता स्त्री है। विवाहिता दो प्रकार की है एक तो तिरेसठ शलाकापुरुष उत्पन्न होने लगते हैं। ये शलाकापुरुष | कर्मभूमि में रूढ़ि से चली आई अपनी जाति की कन्या के २४ तीर्थंकर, १२ चक्रवर्ती, ९बलभद्र, ९ नारायण, ९ | साथ विवाह करना और दूसरी अन्य जाति की कन्या से प्रतिनारायण इन नामों से प्रसिद्ध हैं। दिव्यपुरुष भी कर्मभूमि | विवाह करना। अपनी जाति की कन्या से विवाह की गई स्त्री में ही जन्मते हैं यह २४ तीर्थंकर, इनके गुरु (तीर्थंकरों के २४ | धर्मपत्नी। दसरी जाति की भोग पत्नी। धर्मपत्नी के पत्र को पिता और २४ माताएँ) १२ चक्रवर्ती, ९ बलभद्र, ९ नारायण, उत्तराधिकार मिलता है वही मोक्ष का अधिकारी भी है।१७ ११ रुद्र, ९ नारद, २४ कामदेव, १४ कुलकर, ९ प्रतिनारायण, मनुष्यों में विवाह होते हैं और उनके सद सब मिलकर १६९ हैं।११ भरतक्षेत्र की कर्मभूमि की विशेषता गृहस्थ धर्म का पालन भी होता है। कर्मभूमि की स्त्रियों के रही है कि इसमें वंशोत्पत्ति हुई है। ऋषभदेव ने हरि, अकम्पन, अन्त के तीन संहनन नियम से होते हैं तथ्य आदि के तीन काश्यप और सोमप्रभ नामक महाक्षत्रियों को बुलाकर उनको संहनन नहीं होते हैं ऐसा जिनेन्द्रदेव का कथन है।८हीनसंहनन महामण्डलेश्वर बनाया। तदनन्तर सोमप्रभ राजा भगवान् से और रागबाहुल्य के कारण वें मुक्ति को प्राप्त नहीं होती। कुरुराज नाम पाकर कुरुवंश का शिरोमणि हुआ। हरि भगवान् से हरिकान्त नाम पाकर हरिवंश को अलंकृत करने लगा कर्मभूमियों में आर्य और म्लेच्छ दोनों प्रकार के मनुष्य क्योंकि वह हरि पराक्रम में इन्द्र अथवा सिंह के समान पाये जाते हैं। गुण अथवा गुणवानों के द्वारा जो प्राप्त हैं, पराक्रमी था। अकम्पन भी भगवान से श्रीधर नाम प्राप्तकर सेवित होते हैं, वे आर्य कहलाते हैं। उससे विपरीत लक्षण नाथवंश का नायक हुआ। कश्यप भगवान् से मघवा नाम वाले गुणवानों से सेवित नहीं हैं, उन्हें म्लेच्छ कहा गया है। पाकर उग्रवंश का प्रमुख हुआ। उस समय भगवान् ने मनुष्यों आर्य दो प्रकार के होते हैं ऋद्धिप्राप्त आर्य और ऋद्धिरहित को इक्षु का रस संग्रह करने का उपदेश दिया था इसलिए आर्य । ऋद्धिप्राप्त आर्य सात प्रकार के हैं। बुद्धि, तप, विक्रिया जगत के लोग उन्हें इक्ष्वांक कहने लगे।२ सर्वप्रथम भगवान, औषध, बल, रस और क्षेत्रद्धि ये ऋद्धियाँ हैं । इनसे सम्पन्न आदिनाथ से इक्षवांकुवंश प्रारम्भ हुआ पीछे इसकी दो शाखाएँ | मुनि ऋद्धिप्राप्त आर्य कहे गये हैं। ऋद्धि रहित आर्य पाँच हो गई। एक सूर्यवंश दूसरी चन्द्रवंश।१३ सूर्यवंश की शाखा | प्रकार के हैं जात्यार्य, क्षेत्रार्य, कार्य, दर्शनार्य और चारित्रार्य। भरत चक्रवर्ती के पुत्र अर्ककीर्ति से प्रारम्भ हुई क्योंकि इक्ष्वाकु आदिवंशज मनुष्य जात्यार्य हैं। आर्यक्षेत्र में उत्पन्न अर्कनाम सूर्य का है।१४ इस सर्यवंश का नाम ही सर्वत्र | होने की अपेक्षा क्षेत्रार्य हैं। जिनकी कर्मक्रिया श्रेष्ठ है वे इक्ष्वाकुवंश प्रचलित है। चन्द्रवंश की शाखा बाहुबली के पुत्र | कर्मार्य हैं। सम्यक्त्वयुक्त मनुष्य दर्शनार्य हैं। संयमधारी मनुष्य सोमयश से प्रारम्भ हुई।१५ इसी का नाम सोमवंश भी है | चारित्रार्य हैं । कर्मभूमि में रहने वाले चारित्र के माध्यम से ही क्योंकि सोम और चन्द्र एकार्थवाची हैं। ऊँचे उठते हैं। यदि और सम्पदाएँ प्रचुर मात्रा में भी हों किन्तु भरतक्षेत्र में कर्मभूमि के आने के बाद ही वंश, जाति, | चारित्र नहीं हो तो "संपदो नैव सम्पदः" सम्पदाएँ वास्तव में कुल आदि परम्पराओं के उद्भव के साथ महापुरुष हुए जो | सम्पदत्व की अधिकारिणी नहीं कही जा सकती हैं। इसप्रकार मोक्ष के अधिकारी थे। यहाँ भगवान् ऋषभदेव ने प्रजा को | मनुष्य के भीतर उत्कर्षों का मान भी चारित्र द्वारा ही स्थापित 10 फरवरी 2007 जिनभाषित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524314
Book TitleJinabhashita 2007 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2007
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size5 MB
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