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________________ मैं यह अनुभव करती हूँ कि 'मूकमाटी' जैसे सुदृढ़ विशाल महाकाव्य की यह समीक्षा नितान्त अपर्याप्त है। उस पर यदि कोई लिखने बैठे, तो उससे भी कहीं दुगुना ग्रंथ तैयार हो सकता है। उसमें जैनधर्म और दर्शन के प्रमुख सिद्धान्त तो हैं ही, पर एक जो विशेष बात कहनी है वह यह कि यह काव्य आचार्यश्री का जीवन-दर्शन लेकर व्यक्ति के समक्ष उपस्थित होता है। वस्तुतः काव्य की पृष्ठभूमि में कवि ने व्यक्तित्व के निर्माण की कला को सुप्रतिष्ठि किया है और माटी जैसे उपेक्षित तत्त्व का आधार लेकर आध्यात्मिक विकास के चरम शिखर तक पहुँचाया है, जिसे देखकर स्वर्ण-कलश परेशान हो उठता है और ईर्ष्यावश बहुत कुछ मंगल - कलश के विरोध में आवाज उठाने का असफल प्रयत्न करता है । अध्यात्म के क्षेत्र में वह धन की निस्सारता का सूचक है । कुल मिलाकर 'मूकमाटी' एक सशक्त महाकाव्य है, जिसने जीवन के हर क्षेत्र को छुआ है और उसे अध्यात्म से सराबोर कर दिया है। आखिर ऐसा होता भी क्यों नहीं, यह कृति अन्ततः एक निःस्पृही, निर्ग्रन्थ संत की कृति है न? हाँ, लेखनी बन्द करते-करते कबीर का ध्यान आ गया, जहाँ उन्होंने माटी और कुंभकार के बीच संवाद प्रस्तुत कर संसार की अवस्था को चित्रित किया है- 'माटी कहे कुम्हार से ......।' कबीर तो इतना ही कह सके पर हमारे विरागी संत ने तो उस पर एक विशाल महाकाव्य का प्रासाद खड़ा कर दिया, जिसमें प्रसाद और ओज गुण तो है ही, काव्य-प्रतिभा से माधुर्य गुण भी उसमें कूट-कूट कर भरा है। आध्यात्मिक दर्शन और काव्य-सौष्ठव का मनोरम समन्वय देख कर कौन-सा सहृदय पाठक, इसे पढ़कर अभिभूत नहीं होगा? आइये, इसके हर पन्ने को हम समझें और आत्म-विकास में उसका उपयोग करें। आपके पत्र जिनभाषित का दिसम्बर 2006 अंक मिला। सम्पादकीय "दिगम्बर जैन परम्परा को मिटाने की सलाह" में आपने तीर्थंकरप्रणीत धर्म में सुधार करनेवाले लेखकों को भलीभाँति सन्मार्ग दिखाया है। कहावत है 'इस घर को आग लग गई घर के चिराग से।' जब दिगम्बरधर्म के अनुयायी ही मुनियों को वस्त्रधारण की सलाह देने लगेंगे, तो उनकी दिगम्बरधर्म में आस्था पर ही प्रश्न चिन्ह लग जाता है। एक ओर दिगम्बर जैन संत हैं, जो भौतिकवाद के इस युग में भी दिगम्बर रहकर दिगम्बरधर्म के सच्चे स्वरूप का दिग्दर्शन करा रहे । दूसरी ओर वे व्यक्ति हैं, जो संसार की भोगविलासी संस्कृति से प्रभावित होकर मुनियों को वस्त्र धारण की सलाह दे रहे हैं। सच्चे दिगम्बर मुनि चिरकाल तक संसार में विहार कर धर्म का प्रचार-प्रसार करते रहें, मेरी यही भावना है। पत्र-पत्रिकाओं के सम्पादकों को भी ध्यान रखना चाहिए और दिगम्बर जैन परम्परा पर छींटाकशी करने वाले लेखों को नहीं छापना चाहिए। कस्तूरबा वाचनालय के पास सदर, नागपुर 440001 (महाराष्ट्र ) इसी अंक में 'मिथ्याप्रचारकों से सावधान' लेख भी अच्छा लगा। साधुओं का शिथिलाचार समाप्त होना चाहिए। सभी जानते हैं कि कौन-कौन शिथिलाचारी हैं। पूज्य मुनि श्री सुधासागर जी महाराज की निर्दोष चर्या पर भी तथाकथित समाजसेवियों द्वारा उँगली उठाई जा रही है। ऐसा लगता है कि पूज्य आचार्य विद्यासागर जी महाराज और उनके संघस्थ साधुओं के ज्ञान, ध्यान और तप के प्रभाव बौखलाकर कुछ समाचारपत्रों और पत्रिकाओं द्वारा जानबूझकर एकतरफा लेख प्रकाशित किये जा रहे हैं, जो चिंता का विषय है। Jain Education International जिनभाषित के दिसम्बर 2006 के सम्पादकीय के लिये बधाई । बहुत अच्छा लिखा है। हालाँकि प्रत्येक अंक का सम्पादकीय बहुत अच्छा होता है। कृपया कुण्डलपुर के सत्य के बारे में एक पुस्तक लिखने का कष्ट कीजिये। मैं प्रकाशित करवाने का वायदा करता हूँ। इससे कुण्डलपुर के विरोधियों के भ्रामक प्रचार की कलई खुल जावेगी । डॉ. अमोलकचन्द्र जैन 66, नार्थ ईदगाह कॉलोनी, आगरा (उ.प्र.) For Private & Personal Use Only डॉ. नरेन्द्र जैन 'भारती' वरिष्ठ सम्पादक-' पार्श्वज्योति', सनावद (म.प्र.) जनवरी 2007 जिनभाषित 25 www.jainelibrary.org
SR No.524313
Book TitleJinabhashita 2007 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2007
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size5 MB
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