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आचार्य श्री
विद्यासागर जी
के दोहे
55
ओर छोर शुरुआत ना, घनी अँधेरी रात। विषयों की बरसात है, युगों-युगों की बात ॥
56
गात्र प्राप्त था गात्र है, आत्म गोत्र ना प्राप्त । आत्मबोध क्यों ज्ञात हो, युगों-युगों की बात ॥
57
क्या था क्या हूँ क्या बनूँ? रे मन ! अब तो सोच। वरना मरना वरण कर, बार-बार अफसोस ॥ 58
माना मनमाना करे, मन का धर्म गरूर । मानतुंग के स्मरण से, मानतुंग हो चूर ॥
59
संग रहित बस! अंग है, यथाजात शिशु ढंग । श्रमण जिन्हें मम नमन हो, मानस में न तरंग ॥
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अंत किसी का कब हुआ? अनंत सब हे सन्त ! पर, सब मिटता सा लगे, पतझड़ पुनः बसन्त ॥
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क्रूर भयानक सिंह भी, तीर्थ जहाँ पर शान्त हो,
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बिना मूल के चूल ना, चूल बिना फल-फूल । रे! बिन विधि अनुकूल ये, सभी धूल मत भूल ॥
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फना उठाते नाग। लपटों वाली आग ॥
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प्रभु-दर्शन फिर गुरु कृपा, तदनुसार पुरुषार्थ । दुर्लभ जग में तीन ये, मिले सार परमार्थ ॥
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सब कुछ लखते पर नहीं, प्रभु में हास-विलास । दर्पण रोया कब हँसा? कैसा यह संन्यास? ॥
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बादल दलदल यदि करे, दलदल धोवन-हार । और कौन सा दल रहा? धरती पर दिल-दार ॥ 66
तरंग क्रम से चल रही, पल-पल प्रति पर्याय । ध्रुव-पदार्थ में पूर्व का, व्यय होता, फिर आय ! ॥
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रहस्य खुलता आप जब, सहज मिटे संघर्ष । वस्तु-धर्म के दरस से, विषाद क्यों हो हर्ष ? ॥
68
आस्था का बस विषय है, शिव-पथ सदा अमूर्त। वायु-यान पथ कब दिखा, शेष सभी पथ मूर्त ॥
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किये जा रहे जोश से, विश्व शान्ति का घोष । दोषों के तो कोष हैं, कहाँ किसे है होश ? ॥
70
सुना, सुनाता तुम सुनो, सोना "सो" ना प्राण । प्राण जगाते झट जगो, प्राणों का हो त्राण ॥
71
सब को मिलता कब कहाँ? अपार श्रुत का पार । पर, श्रुत-पूजन से मिले, अपार भवदधि-पार ॥
72
उपादान की योग्यता, निमित्त की भी छाप । स्फटिक मणि में लालिमा, गुलाब बिन ना आप ॥
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'सर्वोदयशतक' से साभार
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