SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 34
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 1. मूलाचार प्रदीप में इस प्रकार कहा है यदि शक्ति न हो या अस्वस्थता हो, तो अलग बात है। भगवान् यतो यथात्र सिद्धान्नं भोक्तुं सुखेन शक्यते। की विनय तो खड़े होकर पूजा करने में ही है। इस संबंध में तथा चास्वामिकां नारी स्वाश्रमे स्वयमागताम्॥2303॥ कुछ आगम प्रमाण इस प्रकार हैं - अतो जातु न विद्येत क्वचितकाले निजेच्छया। __ 1. श्री आदिपुराण पृष्ठ 561 पर इस प्रकार कहा हैएकाकिन्यार्यिकायाश्च विहारो गमनादिकः।।2304।। उत्थाय तुष्ट्या सुरेन्द्राः स्वहस्तैः, अर्थ - जिस प्रकार पकाया हुआ भात आसानी से जिनस्यामिपूजां प्रचक्रुः प्रतीताः। खाया जा सकता है, उसी प्रकार बिना स्वामी की स्त्री यदि अर्थ- सम्यग्दृष्टि सुरेन्द्रों ने अत्यन्त प्रमोदपूर्वक खड़े स्वयं अपने आश्रम में या घर में आ जाय, तो वह आसानी से | होकर अपने हाथों से भगवान् के चरण कमलों की पूजा की। भोगी जा सकती है। इसलिये अकेली आर्यिका को अपनी 2. श्री मूलाचार में इस प्रकार कहा है - इच्छानुसार किसी भी समय विहार और गमन आदि कभी चतुरंगुलंतर पादो पडिलेहिय अंजलीकयपसत्थो। नहीं करना चाहिये। अव्वाखित्तो वुत्तो कुणदि य चउवीसत्थयं भिक्खू।।575 ।। 2. श्री आचारसार में इस प्रकार कहा है अर्थ - चार अंगुल अन्तराल से पाद को करके, व्याद्याः समं वसन्त्यार्या गृहस्थासंकराश्रये। प्रतिलेखन करके, अंजलि को प्रशस्त जोड़कर एकाग्रमना तद्गृहानतिदूरातिसमीपेऽवद्यवर्जिते॥2/82॥ हुआ भिक्षु, चौबीस तीर्थंकर का स्तोत्र करता है। अर्थ - गृहस्थों के घर से अत्यन्त निकट भी नहीं और आचारवृत्ति- पैरों में चार अंगुल का अंतर रखकर अत्यन्त दूर भी नहीं, सावधरहित गृहस्थों से अमिश्रित गृह में | स्थिर अंगकर जो खड़े हुये हैं .... (यहाँ मुनियों को भी खड़े दो आदि के साथ आर्यायें रहती हैं। होकर ही वंदना करने का विधान किया है।) भावार्थ- जो असंयमी जनों के आवास से रहित हो, 3. नित्य देवपूजा विनय पाठ पढ़कर प्रारंभ की जाती श्रावकों के घर से अत्यंत दूर भी नहीं और अत्यन्त समीप भी है। उसमें सर्वप्रथम यह पढ़ा जाता है, "इह विधि ठाड़ो होय नहीं हो तथा जो सर्वसावध से रहित हो, ऐसे स्थान में दो तीन | के, प्रथम पढ़े जो पाठ।" आदि आर्यिकाएँ मिलकर रहें। अकेली नहीं रहें। आर्यिकाओं 4. श्री हजारीलालकृत पूजन-स्तवन में इस प्रकार का अकेला रहना, आगम में निषिद्ध है । (टीका आ. सुपार्श्वमती जी)। "मैं स्तवों तुम सम्मुख ठाड़, यातें पाप सकल परिहरें।" ___ 3. श्री मूलाचार में इस प्रकार कहा है 5. पुण्याश्रव कथाकोष में इस प्रकार कहा है तदा गोपालकः सोऽपि,स्थित्वा श्री मज्जिनाग्रतः। तिण्णि व पंच व सत्त व अज्जाओ अण्णमण्णरक्खाओ। भो सर्वोत्कृष्ट मे पद्म, ग्रहाणेदमिति स्फुटम्॥15।। थेरीहिं सहंतरिदा भिक्खाय समोदरंति सदा।। 194॥ अर्थ- तब उस ग्वाले ने श्री जिनेन्द्रदेव के आगे खडे अर्थ - तीन या पाँच या सात आर्यिकाएँ आपस में रक्षा में तत्पर होती हुईं वृद्धा आर्यिकाओं के साथ मिलकर हमेशा | होकर एक बड़ा कमल समर्पित किया। 6. श्री धर्म संग्रहश्रावकाचार में कहा हैआहार के लिये निकलती हैं। आचारवृत्ति का तात्पर्य-तात्पर्य स चाद्यं पीठमारुढस्त्रि परीत्य कृतांजलिः। यह है कि आर्यिकाएँ देववंदना, गुरुवंदना, आहार-विहार पूजा द्रव्यमुपानीय, भक्त्या स्तौत्यभिमुखम्॥33॥ नीहार आदि किसी भी प्रयोजन के लिये बाहर जावें, तो दो चार अर्थ- राजा श्रेणिक आद्य पीठ पर चढ़कर भगवान् आदि मिलकर तथा वृद्धा आर्यिकाओं के साथ होकर ही जायें। की तीन प्रदक्षिणा देकर हाथ जोड़कर सामने खड़े होकर, पूजा (टीका आ. ज्ञानमति जी) का द्रव्य चढ़ाते हुये। उपर्युक्त सभी आचारग्रंथो के अनुसार आर्यिका का उपर्युक्त सभी प्रमाणों से यह स्पष्ट होता है कि भगवान् अकेला रहना या अकेले बिहार करना आगमसम्मत नहीं है। | के समक्ष विनयपूर्वक खड़े होकर पूजा करना ही आगम____4. जिज्ञासा - पूजा खड़े होकर करनी चाहिए या सम्मत है। बैठकर? 1/205, प्रोफेसर्स कॉलोनी, समाधान - पूजा तो खड़े होकर ही करना उचित है।। आगरा-282002(उ.प्र.) 32 दिसम्बर 2006 जिनभाषित | कहा है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524312
Book TitleJinabhashita 2006 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2006
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size5 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy