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________________ प्रिय मित्र! क्या आपने इस प्रश्न पर गंभीरतापूर्वक विचार किया है कि क्या आप जैन संतों को शिक्षा देने की अर्हता रखते हैं ? आप स्वयं जैन नहीं हैं, लेकिन यदि आप जैन होते, तो भी जैन संत केवल तीर्थंकरों के उपेदश का ही पालन करते हैं। जैसे आप किसी मुसलमान, ईसाई, पारसी आदि को अपने निजी विचार मानने के लिए बाध्य नहीं कर सकते, क्योंकि वे अपने-अपने धर्मसंस्थापकों के ही उपदेश को मानते हैं, वैसे ही आपके लिए यही उचित था कि आप जैनों को धर्म के बारे में कोई शिक्षा न देते । आपने अपने लेख में परिग्रह और अपरिग्रह का उल्लेख किया है। इन दोनों की व्याख्या जैसी आपने की है, वह अजैन व्याख्या है। जैन सिद्धांत में तो लंगोटी को भी परिग्रह कहा गया है। परिग्रह बाह्य और अंतरंग दोनों प्रकार का होता है। जब तक आप बाह्य परिग्रह रखते हैं, अंतरंग परिग्रह से निवृत्ति नहीं हो सकती । मेरे प्रिय मित्र ! आपने लिखा है कि आपको यह विश्वास करने का कोई कारण नजर नहीं आता कि जैन संत काम-वासना से मुक्त होते हैं। मैं यह जानना चाहूँगा कि इसका आपके पास क्या प्रमाण हैं ? मैं यह स्वीकार करता हूँ कि कुछ जैन संत उतने विकार मुक्त नहीं हैं, जितना उन्हें होना चाहिए, परन्तु आपका कथन अतिशयोक्तिपूर्ण है। मैं आपको ऐसे संतों के उदाहरण दे सकता हूँ, जो वस्तुतः विकारमुक्त हैं । किन्तु मुझे नहीं लगता कि आप ऐसे किसी एक भी जैन साधु का उदारहण दे सकेंगे, जिसने किसी महिला से अभद्र व्यवहार या कुशील आचरण किया हो। जो भी हो, आपको किसी व्यक्तिविशेष के दुर्गुण देखकर पूरे साधु-समाज पर लांछन नहीं लगाना चाहिए । आपको यह भी ध्यान रखना है कि संत आसमान से बने बनाये नहीं आते, अपितु जब उच्च गृहस्थ संसार से विरक्त हो जाते हैं, तब मोक्ष की साधना के लिए साधु-अवस्था स्वीकार करते हैं। आपने 'गीता' के एक श्लोक का उल्लेख किया है। इसमें कोई सन्देह नहीं कि 'गीता' एक बहुत पवित्र एवं महान् ग्रंथ है, जिसमें आज 25,00,00,000 मानव श्रद्धा रखते हैं, किन्तु जैनों के अलग धर्म-शास्त्र हैं। आप निश्चित रूप से यह नहीं चाहेंगे कि हिन्दू जैन धर्मग्रंथों में उपदिष्ट धर्म का पालन करें। ठीक उसी प्रकार कोई यह नहीं चाहेगा कि आप जैनों को 'गीता' के उपदेश के अनुसार चलने की माँग करें। फिर भी, 'गीता' में ऐसा कोई भी वचन नहीं है, जिसमें यह कहा गया हो कि संतों को नग्न विचरण नहीं करना चाहिए। मेरा यह पत्र विस्तृत हो गया है, इसलिए यह दिखलाने के लिए कि हिन्दूधर्म, इस्लामधर्म तथा अन्य प्राचीन धर्मों में भी साधुओं की नग्नता को आदरणीय माना गया है, मैं दुनिया के विभिन्न धर्मग्रन्थों से उद्धरण नहीं दूँगा, क्योंकि इससे पत्र और विस्तृत हो जायेगा। मैं इस विषय पर आपको केवल कुछ पुस्तकों के नाम बतलाना चाहता हूँ। उनमें से एक है 'दिगम्बरमुद्रा की सर्वमान्यता', जो जैन सिद्धान्त भवन, आरा से प्राप्त की जा सकती है। मैंने स्वयं इस विषय पर The Nudity of Saints नाम की पुस्तक लिखी है। इस समय वह शायद प्रेस में है । मैं अपने भारत-स्थित मित्रों को लिख रहा हूँ कि प्रकाशित होते ही उसकी एक प्रति आपको भेंट करें। मेरे प्रिय मित्र ! मुझे विश्वास है कि आप इस विषय पर पुनः विचार करेंगे और इससे सम्बद्ध दो महत्त्वपूर्ण सिद्धान्तों को पूर्ण मान्यता प्रदान करेंगे, जो इस प्रकार हैं १. प्रत्येक समुदाय को अपने धर्म के पालन का अधिकार है, जिसमें किसी अन्य समुदाय या व्यक्ति के द्वारा बाधा न पहुँचायी जाय । २. राज्य की मार्ग-निर्देशक नीति का निर्माण आवश्यक है, जिसकी शक्ति और स्थायित्व धर्म में हस्तक्षेप न करने के सिद्धान्त में निहित है, चाहे धर्म का कोई भी रूप हो । जैन समुदाय को दो ऐसे महान् व्यक्तियों के विचारों से क्षोभ पैदा हुआ है, जो उच्च श्रेणी के राष्ट्रभक्त और अग्रणी नेता हैं और अब जैन समुदाय ऐसी नीति घोषित किये जाने की आतुरता से प्रतीक्षा कर रहा है, जिससे स्थिति शीघ्र सँभल जाय। आप और वल्लभभाई पटेल जैसे नेताओं के विचारों से विश्व में भ्रम पैदा हो सकता है और जो लोग हिन्दूधर्म और जैनधर्म के विरुद्ध हैं और उनसे ईर्ष्या करते हैं, वे इस स्थिति का फायदा उठाकर इन दोनों धर्मों के पालनेवालों में विद्वेष उत्पन्न कर सकते हैं। मैं एक क्षण को भी यह मानने के लिये तैयार नहीं हूँ कि आप इस सिद्धान्त 12 दिसम्बर 2006 जिनभाषित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524312
Book TitleJinabhashita 2006 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2006
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size5 MB
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