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सम्पादकीय मृत्यु का कारण उपस्थित होने पर स्वधर्मरक्षा का प्रयत्न : सल्लेखना
हाल ही में राजस्थान में एक जैन साध्वी द्वारा मृत्यु के निकट आ जाने पर सल्लेखनाविधि या संथाराविधि (पवित्र आचार-विचार-पूर्वक मरने की विधि) अपनाये जाने की एक सज्जन ने सतीप्रथा से तुलना कर उसे आत्महत्या का नाम दिया है और उस पर रोक लगाने के लिए राजस्थान उच्च न्यायालय में याचिका प्रस्तुत की है। यह जैनधर्म के सिद्धान्तों और सल्लेखना के अर्थ से अनभिज्ञ होने का कुपरिणाम है तथा एक अहिंसा-अपरिग्रहअनेकान्त-प्रधान, लोककल्याणकारी, प्राचीनधर्म को छिन्न-भिन्न करने की धर्मस्वातन्त्र्य-विरोधी, अलोकतान्त्रिक साजिश है। यदि उक्त सज्जन ने जैनधर्म- ग्रन्थों का अध्ययन किया होता, तो वे सल्लेखना को आत्महत्या कहने की गलती न करते, क्योंकि तब वे समझ जाते कि वह आत्महत्या नहीं है, अपितु निकट आयी हुयी और न टाली जाने योग्य मृत्यु से घबरा कर प्राणरक्षा के लिए धर्म से च्युत करनेवाली पापक्रियाओं में न फंसने की साधना है। ईसा की तीसरी सदी में हुए जैनाचार्य समन्तभद्र ने सल्लेखना अर्थात् समाधिमरण (शान्तिपूर्वक मरण) का लक्षण 'रत्नकरण्ड श्रावकाचार' की निम्नलिखित कारिका में बतलाया है
उपसर्गे दुर्भिक्षे जरसि रुजायां च निःप्रतीकारे।
धर्माय तनुविमोचनमाहुः सल्लेखनामार्याः॥५/१॥ अनुवाद- जब किसी भयंकर उपसर्ग (प्राकृतिक या मनुष्य-देव-तिर्यंच-जनित विपदा), घोर अकाल, अत्यन्त वृद्धावस्था और किसी असाध्य रोग के कारण प्राणों पर संकट आ जाय और उसे नैतिकमार्ग और धर्ममार्ग (अहिंसकमार्ग) से टाला न जा सके, मृत्यु सुनिश्चित हो जाय, तो नैतिकता और धर्म की रक्षा के लिए अर्थात् अपने को अनैतिकमार्ग और पापमार्ग में प्रवृत्त होने से बचाने के लिए धर्मपूर्वक प्राणों का परित्याग करना सल्लेखना, समाधिमरण या संथारा कहलाता है।
सल्लेखना की इस परिभाषा से स्पष्ट है कि सल्लेखना में आत्महत्या नहीं की जाती, अपितु जब किसी आततायी मनुष्य या सिंहादि हिंस्र पशु के द्वारा मुनि या श्रावक की हत्या की जा रही हो अथवा भूकम्प, बाढ़, अग्नि बुढ़ापे या भयंकर रोग से हत्या हो रही हो और उससे बचने का नैतिक और धर्म-संगत उपाय न हो, तब मृत्यु से बचाने में असमर्थ आहार-जल-औषधि आदि के परित्याग का व्रत लेकर अर्थात् समस्त सांसारिक पदार्थों से राग छोड़कर धर्मपूर्वक समभाव और क्षमाभाव से मृत्यु को स्वीकार कर लेने का नाम सल्लेखना है। और जब ऐसा होता है, तब न तो जीवन से मोह रहता है, न मृत्यु की चाह होती है। जीवनमोह और मृत्यु की चाह होने को सल्लेखना में दोष माना गया है। इस नियम का उल्लेख ईसा की द्वितीय शताब्दी में हुए आचार्य उमास्वामी ने जैनधर्म के सुप्रसिद्ध ग्रन्थ तत्त्वार्थसूत्र' के निम्नलिखित सूत्र में किया है
"जीवितमरणाशंसामित्रानुरागसुखानुबन्धनिदानानि॥"७/३७॥ अनुवाद- जीवित रहने की इच्छा, मरने की इच्छा, मित्रों से अनुराग, पूर्वानुभूत सुखों का बार-बार स्मरण और सल्लेखना से स्वर्गादिफलों की चाह, ये पाँच सल्लेखना के अतिचार (उसमें दोष उत्पन्न वाले कारण) हैं।
इस आर्षवचन से सिद्ध है कि सल्लेखना में मुनि या श्रावक मरने की चाह नहीं करता, बल्कि बाह्य कारणों से मृत्यु के अनिवार्य हो जाने पर उससे भय त्याग देता है और अपने अहिंसादि व्रतों की रक्षा करते हुए मृत्यु का वरण करता है। इस प्रकार सल्लेखना आत्महत्या नहीं है, अपितु बाह्य कारणों से मृत्यु के अनिवार्य हो जाने पर अपने धर्म की रक्षा का प्रयत्न है। सल्लेखना आत्महत्या क्यों नहीं? ___आत्महत्या करनेवाला क्रोध, शोक, विषाद, भय, निराशा आदि के आवेग में मृत्यु के कारण स्वयं जुटाता है,
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