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________________ सके? अनुभव था। उनके पास वास्तविक ज्ञान था। ज्ञान का अर्थ है | उपरांत भी आप रात्रि में कितनी चीजें खाने योग्य जुटा लेते हैं। देखने की आँखें। ऐसी आँखें उनके पास थीं जिनमें करुणा का | संसार में ऐसे भी लोग हैं, जो दिन में भी एक बार भरपेट भोजन • जल छलकता रहता था। धर्म यही है कि दीनदुखी जीवों को | नहीं पा पाते। थोड़ा उनके बारे भी में सोचिये। उनकी ओर भी तो देखकर आँखों में करुणा का जल छलक आये, अन्यथा छिद्र तो | थोड़ी दृष्टि कीजिये। कितने लोग यहाँ हैं, जो इस प्रकार का कार्य नारियल में भी हुआ करते हैं। दयाहीन आँखे नारियल के छिद्र के | करते हैं, दूसरे के दुख में कमी लाने का प्रयास करते हैं। समान हैं। जिस ज्ञान के माध्यम से प्राणीमात्र के प्रति संवेदना आज इस भारत में सैकड़ों बूचड़खानों को निर्माण हो जागृत नहीं होती, उस ज्ञान का कोई मूल्य नहीं और वे आँखे रहा है। पशुपक्षी मारे जा रहे हैं, आप सब सुन रहे हैं, देख रहे हैं किसी काम की नहीं, जिनमें देखने-जानने के बाद भी संवेदना फिर भी उन राम-रहीम और भगवान महावीर के समय में जिस की दो तीन बूंदे नहीं छलकतीं। भारत भूमि पर दया बरसती थी, सभी प्राणियों के लिए अभय था, एक अंधे व्यक्ति को हमने देखा था। दूसरे के दुख की | उसी भारतभूमि पर आज अहिंसा खोजे-खोजे नहीं मिलती। बात सुनकर उसकी आँखों में पानी आ रहा था। मुझे लगा व आँखे आज बड़ी-बड़ी मशीनों के सामने रखकर एक-एक दिन बहुत अच्छी हैं, जिनसे भले ही दिखायी नहीं देता, लेकिन | में दस-दस लाख निरपराध पशु काटे जा रहे हैं। सर्वत्र बड़े-बड़े करुणा का जल तो छलकता रहता है। गाँधी जी के पास पर्याप्त नगरों में हिंसा का ताण्डव नृत्य दिखाई दे रहा है। आपको कुछ ज्ञान था, विलायत जाकर उन्होंने अध्ययन किया और बैरिस्टर करने की, यहाँ तक कि यह सब देखने तक की फुरसत नहीं हैं। बने। बैरिस्टर बहुत कम लोग बन पाते हैं। यह उपाधि भी भारत | क्या आज इस दुनियाँ में ऐस कोई दयालु वैज्ञानिक नहीं है, जो में नहीं विलायत से मिलती है। इतना सब होने पर भी उनके जाकर के इन निरपराध पशुओं की करुण पुकार को सुन सके, भीतर धर्म था, संवेदना थी। वे दयाधर्म को जीवन का प्रमुख अंग उनके पीड़ित जीवन को समझ कर उनकी आत्मा की आवाज मानते थे। या कहो कि जीवन ही मानते थे। उनके जीवन की ऐसी पहचान कर हिंसा के बढ़ते हुए आधुनिक साधनों पर रोक लगा 'कई घटनाएँ हैं, जो हमें दया से अभिभूत कर देती हैं। "दया धर्म का मूल है, पाप मूल अभिमान तुलसी दया न ___आज पशुओं की हत्या करके, उनकी चमड़ी माँस आदि छाँड़िये, जब लौं घट में प्रान।" यह जो समय हमें मिला है, जो सब कुछ अलग करके डिब्बों में बंद करके निर्यात किया जाता कुछ उपलब्धियाँ हुई हैं, वे पूरी की पूरी उपलब्धियाँ दयाधर्म है। सरकार सहयोग करती है और आप भी पैसों के लोभ में ऐसे पालने के लिए ही हैं। ज्ञान के माध्यम से हमें क्या करना चाहिये, अशोभनीय कार्यों में सहयोगी बनते हैं। आप केवल नोट ही देख तो संतों ने लिखा है कि ज्ञान का उपयोग उन स्थानों को जानने में रहे हैं फॉरेन करेंसी। लेकिन आगे जाकर जब इसका फल मिलेगा करना चाहिये, जिन स्थानों में सूक्ष्म जीव रह सकते है, ताकि उनको बचाया जा सके। जीवों को जानने के उपरांत यदि दया नहीं तब मालूम पड़ेगा। इस दुष्कार्य में जो भी व्यक्ति समर्थक हैं, उनके लिए भी नियम से इस हिंसा जनित पाप के फल का आती, तो उस ज्ञान का कोई उपयोग नहीं। वह ज्ञानी नहीं माना जा सकता, जिसके हृदय में उदारता नहीं है, जिसके जीवन में यथायोग्य हिस्सा भोगना पड़ेगा। समय किसी को माफ नहीं करता। अनुकम्पा नहीं है। जिसका अपना शरीर तो सर्दी में कैंप जाता है, किंतु प्राणियों की पीड़ा को देखकर नहीं कैंपता, वह लौकिक दृष्टि छहढाला का पाठ आप रोज करते हैं। 'सुखी रहें सब से भले ही कितना भी ज्ञानी क्यों न हो, परमार्थदृष्टि से सच्चा जीव जगत के'- यह मेरी भावना भी रोज-रोज भायी जाती है, ज्ञानी वह नहीं है। लेकिन निरंतर होनेवाली हिंसा को रोकने का उपाय कोई नहीं आज पंचेन्द्रिय जीव, जिनमें तिर्यंच पशुपक्षियों की बात करता। चालीस-पचास साल भी नहीं हुए गाँधी जी का अवसान तो बहुत दूर रही, ऐसे मुनष्य भी हैं, जिन्हें जीने योग्य आवश्यक हुए और यह स्थिति उन्हीं के देश में आ गयी। जिस भारतभूमि सामग्री भी उपलब्ध नहीं हो पाती। समय पर भोजन नही मिलता, पर धर्मायतनों का निर्माण होता था, उसी भारतभूमि पर आज रहने को मकान नहीं है, शिक्षा के समूचे साधन नहीं हैं। सारा धड़ाधड़ सैकड़ों हिंसायतनों का निर्माण हो रहा है। इसमें राष्ट्र के जीवन अभाव में व्यतीत होता जाता है। कुछ मिलता भी है, तो साथ-साथ व्यक्ति का भी दोष है। क्योंकि देश में प्रजातंत्रात्मक उस समय जब जीवन ढलता हुआ नजर आने लगता है। जैसे शासन है। प्रजा ही राजा है। आपने ही चुनाव के माध्यम से वोट शाम तक यदि कुछ राशन मिल भी जाए तो सूरज डूबने को है। देकर शासक नियुक्त किया है। यदि आपके भीतर निरंतर होने और रात्रि भोजन का त्याग है। अब खाने की सामग्री होते हए भी वाली उस हिंसा को देखकर करुणा जागृत हो जाए, तो शासक खाने का मन नहीं है। आप सोचिये रात्रि भोजन का त्याग करने के | कुछ नहीं कर सकते। आपको जागृति लानी चाहिये। -नवम्बर 2006 जिनभाषित 11 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524311
Book TitleJinabhashita 2006 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2006
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size5 MB
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