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________________ जिज्ञासा - समाधान पं. रतनलाल बैनाड़ा प्रश्नकर्ता - आनन्द सिंघई, जबलपुर गिहत्थाणं दिक्खाभिमुहाणं वा जंकरिदे तं मणुण्ण वेज्जावच्चं जिज्ञासा - कुभोगभूमि में कौन सा संस्थान होता है ? | णाम। समाधान - श्री आचारसार अध्याय-11 में इस सम्बन्ध अर्थ - आचार्यों के द्वारा सम्मत और दीक्षाभिमुख में इस प्रकार कहा है गृहस्थ की वैयावृत्य मनोज्ञ कहलाती है। हंडं त (पं)नारकैकाक्षाद्यसंजयन्तेषु सामरे। 4. श्री चामुण्डरायदेव रचित चारित्रसार - अभिरूपो भोगभूजे भवेदाद्यं सर्वाण्यन्येषु देहिषु॥ 93॥ मनोज्ञः आचार्याणां सम्मतो वा दीक्षाभिमुखो वा मनोज्ञः, अयं वा विद्वान् वाग्मी महाकुलीन इति यो लोकस्य सम्मत: स मनोज्ञस्तस्य भावार्थ - कुभोगभूमियों के मनुष्य, नारक, एकेन्द्रिय, ग्रहणं प्रवचनस्य लोके गौरवोत्पादनहेतुत्वादसंयत सम्यग्दृष्टिा दो इन्द्रिय, तीन इन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, असंज्ञी पंचेन्द्रियों में | संस्कारोपेतरूपत्वान्मनोज्ञः। एक हुंडक संस्थान होता है। देव और भोगभूमि जीवों में | अर्थ - जो सुंदर हों, उन्हें मनोज्ञ कहते हैं अथवा जो समचतुरस्र संस्थान है। शेष जीवों में छहों संस्थान होते हैं।। विद्वान् हों, वक्ता हों, महा कुलीन हों, इस प्रकार लोक में जो 93 ॥ (हिन्दी टीका-पू. आर्यिका सुपार्श्वमति माताजी) मान्य हों उन्हें मनोज्ञ कहते हैं। मनोज्ञ ग्रहण करने का यह भी उपर्युक्त प्रमाण के अनुसार कुभोगभूमियाँ-मनुष्यों अभिप्राय है कि संसार में जो अपने मत का गौरव उत्पन्न के हुंडक संस्थान मानना चाहिए। इसके अतिरिक्त कोई करने का कारण हो, ऐसा असंयतसम्यग्दृष्टि भी मनोज्ञ और प्रमाण पाठकों को प्राप्त हो, तो अवश्य सूचित करें। कहलाता है अथवा जो संवेगादिक संस्कार सहित हैं उन्हें भी जिज्ञासा- क्या मनोज्ञ साधुके अन्तर्गत मुनि ही आते | मनोज्ञ कहते हैं। हैं और वे ही वैयावृत्ति के योग्य हैं या गृहस्थ भी आते हैं ? 5. श्री वीरनन्दी सिद्धान्तचक्रवर्ती कृत आचारसार -- समाधान - तत्वार्थसूत्र अध्याय-9 के आचार्यो (अधिकार 6/89-90)पाध्यायतपस्विशैक्ष्यग्लानगणकुलसंघसाधुमनोज्ञानाम्॥ चिरप्रव्रजितः साधुर्यतिः शेषो हि संयमी। 24॥ में दिये गये अंतिम भेद मनोज्ञ की परिभाषा विभिन्न दीक्षोन्मुखो मनोज्ञाख्योऽसंयतो वा सुदर्शनः ॥89॥ ग्रन्थों में निम्न प्रकार पाई जाती है विद्याजात्यादिविख्यातो मिथ्यादृग्वास्य संग्रहः। 1. सर्वार्थसिद्धि - मनोज्ञो लोकसम्मतः। जिन प्रवचनस्यायं लोके गौरवकारकः ॥१०॥ अर्थ - लोकसम्मत साध को मनोज्ञ कहते हैं। अर्थ-दीक्षाभिमुख श्रावक को मनोज्ञ कहते हैं अथवा 2. तत्त्वार्थराजवार्तिक-अभिरूपो मनोज्ञइत्यभिधी- | लोक में जो विद्वान् हैं, वाग्मी हैं, महाकुलीन आदि जाति से यते॥12॥ प्रसिद्ध हैं, जिनका संघ में रहना प्रवचन-गौरव का कारण है, अथवा विद्वान् वाग्मी महाकुलीन इति लोकस्य सम्मतः । उनको मनोज्ञ कहते हैं। अथवा जो संस्कार सहित ससंस्कृत स मनोज्ञः, तस्य ग्रहणं प्रवचनस्य लोके गौरवोत्पादन असंयत सम्यग्दृष्टि हैं, वे भी मनोज्ञ हैं। इस ग्रन्थ में विद्या, हेतुत्वात्॥13॥ जाति आदि से विख्यात जिनधर्म की प्रभावना करनेवाले भद्र अथवा, असंयतसम्यग्दृष्टिमनोज्ञ इति गृह्यते संस्कारो परिणामी मिथ्यादृष्टि को भी मनोज्ञ में ग्रहण किया है। (टीका पेतरूपत्वात् ॥14॥ प. आर्यिका सुपार्श्वमति जी)। अर्थ - अभिरूप (सुंदर) मनोहर को मनोज्ञ कहते उपर्युक्त प्रमाणों के अनुसार लोकप्रसिद्ध सुन्दर साधु हैं ॥ 12 ॥ अथवा जो विद्वान् मुनि वाक्पटुता, महाकुलीनता | | को तो मनोज्ञ कहते ही हैं, दीक्षाभिमुख अथवा लोकप्रसिद्ध आदि गुणों के कारण लोक में प्रसिद्ध हैं, वे मनोज्ञ हैं। ऐसे | असंयत सम्यग्दृष्टि अथवा जिनधर्म-प्रभावक भद्र परिणामी लोगों का संघ में रहना, लोक में प्रवचन-गौरव का कारण मिथ्यादष्टि को भी मनोज्ञ कहा है, इनकी आपत्तियों को दर होता है ।। 13 ।। अथवा संस्कारों में सुसंस्कृत असंयत सम्यग्दृष्टि करना वैयावृत्ति है। को भी मनोज्ञ कहते हैं (क्योंकि उससे प्रवचन की प्रभावना प्रश्नकर्ता - श्री शांतिलाल जी बैनाड़ा, आगरा। होती है)॥14॥ जिज्ञासा - कुछ साधर्मी भाई वेदी में चाँदी के मेरु 3. श्री धवला पु.-13, पृष्ठ-63 - आइरियेहिं सम्मदाणं | आदि विराजमान कर देते हैं, क्या इनका वेदी में विराजमान 22 अक्टूबर 2006 जिनभाषित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524310
Book TitleJinabhashita 2006 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2006
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size5 MB
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