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________________ और अध्यात्म पुरूष? वे सीधे और प्रत्यक्ष स्वतंत्रता संग्राम सृजन कभी चुकता नहीं, के सेनानी नहीं बने, परन्तु उन्होंने अपने प्रेरणास्पद संबोधनों स्वतंत्रता का संघर्ष, कभी रुकता नहीं, और उपदेशों से साहस और संगठन शक्ति के लिये प्राणवाय शहीदों का स्मरण हमारी प्रेरणा है, प्रदान की। देशप्रेमी का सिर, कभी झुकता नहीं। जैन समाज के स्वतंत्रता सेनानियों की खोज का कार्य स्वतंत्रता सेनानियों ने भारत का भाग्य गढ़ा, सदियों कठिन था। प्रामाणिक जानकारी प्राप्त करना और भी कठिन, | से पराधीन देश को आजादी दिलाई, राजतंत्र, सामंतवाद से क्योंकि स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों को केन्द्र सरकार तथा | मुक्ति दिलाकर लोकतंत्र दिया, जनता को, जनता के लिये, राज्य सरकारों से पेंशन, यात्रा में कन्सेशन तथा आरक्षण | जनता द्वारा चलाई जाने वाली राज्य व्यवस्था दी। स्वतंत्रताआदि की सुविधायें जब से मिलने लगीं, फर्जी सेनानियों की | संग्राम सेनानियों ने जहाँ सादगी और त्याग की मिसाल कायम फसल बहुतायत में उगी, फूली-फली। यदाकदा उनके । की, वहीं उसकी अनुवर्ती पीढ़ी सत्ता-सुख में मदान्ध होकर कलंकित करने वाले काण्ड भी प्रकाश में आते रहे हैं, परन्तु | उन्हें ही विस्मृत कर रही है। रघुवीर सहाय जी की यह अपमिश्रण का विकार समाज में कहाँ नहीं है ? इससे | पंक्तियाँ हैं - हतोत्साहित हुये बिना अनवरत यायावरी करके लेखकों ने राष्ट्रगीत में भला कौन वह जो सच्चे मोती खोज निकाले, वे उस ग्रंथमाला में सुशोभित भारत-भाग्य विधाता है हैं। भारत एक विशाल देश है। जैन संख्या में अल्प होते हुये फटा सुथन्ना पहिने जिसका भी देश में सम्मानित कौम के रूप में जाने जाते हैं। अतः गुन हरचरना गाता है। आगामी दो खण्डों में वे स्वतंत्रता- संग्रामी स्थान पा सकेंगे. मखमल, टमटम, बल्लम, तुरही जो लेखक / प्रकाशक को ज्ञात नहीं हो सके हैं। इस यज्ञ में पगड़ी-छत्र-चँवर के साथ आहुति देने का हम सभी का कर्तव्य है कि जिन परिचित तोप छुड़ा कर ढोल बजाकर सज्जन का उल्लेख नहीं हुआ है, उनके नाम, विवरण लेखक/ जय-जय कौन कराता है। प्रकाशक को उपलब्ध करावें। 'मन' के. एच. 50, अयोध्यानगर बायपास मार्ग, भोपाल (म.प्र.) सह मृत्युव्रजति सह मृत्युनिषीदति। गत्वा सुदूरमध्वानं सह मृत्युर्निवर्तते ।। हम चलते हैं, तो मृत्यु भी हमारे साथ चलने लगती है। हम बैठ जाते हैं, तो मृत्यु भी हमारे साथ बैठ जाती है। हम कोसों दूर की यात्रा पर जाते हैं, तो मृत्यु भी हमारे साथ उतनी दूर तक जाती है और जब हम वापस लौटते हैं, तो मृत्यु भी हमारे साथ वापस लौट आती है। मृत्यु हमारे साथ सदा मौजूद रहती है। -अक्टूबर 2006 जिनभाषित 21 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524310
Book TitleJinabhashita 2006 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2006
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size5 MB
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