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ई - पंडित बिहारीलाल जी ने 'बृहत् जैन शब्दार्णव' | योग्यता ही अलोक में जाने की नहीं है अतएव वह अलोक भाग-1 पृ.117 पर लिखा है- “आगामी उत्सर्पिणी काल में | में नहीं जाता, धर्मास्तिकाय का अभाव तो इसमें निमित्त मात्र तृतीय भाग दुखमा सुखमा नामक काल में होनेवाले ग्यारह | है।" यह कथन आगम विरुद्ध है। रुद्रों में से अन्तिम रुद्र का नाम अंगज है।"
जीव का ऊर्ध्वगमन स्वभाव है। बृहद्रव्य संग्रह गाथा ___ इस प्रकार इस प्रश्न के समाधान में दोंनो मत ज्ञातव्य | 2 में भी विस्ससोड्ढगई' पद द्वारा जीव का ऊर्ध्वगमन स्वभाव
बतलाया है। किन्तु आयुकर्म ने जीव के ऊर्ध्वगमन स्वभाव जिज्ञासा - 'णमो अणंतोहिजिणाणं' शब्द का क्या |
| का प्रतिबंध कर रखा है। कहा भी है कि 'आयुष्यवेदनीयोअर्थ है ?
| दययोर्जीवोर्ध्वगमनसुखप्रतिबन्धकयोः सत्त्वात्।'
अर्थ - जीव के ऊर्ध्वगमन स्वभाव का प्रतिबन्धक समाधान - इस शब्द का अर्थ होता है 'अनंतावधि जिनों को नमस्कार हो' अर्थात जिनके ज्ञान की अवधि अर्थात | आयुकर्म का उदय और सुखगुण का प्रतिबंधक वेयनीय सामा अनन्त है, ऐसे अर्हन्त परमेष्ठी को नमस्कार हो। जैसा | कम का उदय अरहंतों के पाया जाता है। सिद्ध भगवान के कि श्री धवला पुस्तक-93.51-52 पर कहा है- अणंते ति | आयुकर्म का क्षय हो जाने से उनकी ऊर्ध्वगमनशक्ति असीम उत्ते उक्कस्साणंतस्स गहणं ---उक्कस्साणंतो ओही जस्स
मोदी हो जाती है। अतः यह कहना कि सिद्धों में लोकाकाश के सो अणंतोही। अधवावयविणासाणं वाचओ अंतसदी घेत्तव्यो।
अंत तक ही जाने की उपादान शक्ति है, इसी कारण सिद्ध ओही मज्जायां, उक्कसाणंतादो पुधभूदा। अंतश्च अवधिश्च |
भगवान का गमन भी लोक के अंत तक ही होता है, उचित अन्तावधी, न विद्यते तौ यस्य स अनन्तावधिः। अभेदाज्जी
| नही है। आचार्य अमृतचन्द्रस्वामी ने इस प्रकार कहा है किवस्यापीयं संज्ञा। अनन्तावधि जिनाः।
ततोऽप्यूर्ध्वगतिस्तेषां, कस्मान् नास्तिचेन्मतिः । अर्थ - अनंत ऐसा कहने पर उत्कृष्ट अनंत का ग्रहण
धर्मास्तिकायस्याभावत्स हि हेतुर्गतेः परः ।। 144।। करना चाहिए। ---उत्कृष्ट अनंत सीमा जिसकी हो वह अर्थ - लोक शिखर से ऊपर सिद्धों की गति क्यों अनंतावधि है। अथवा जघन्य के विनाश के लिये कहने | नहीं होती ? गति का सहकारी कारण जो धर्मास्तिकाय, योग्य अंत शब्द का ग्रहण करना योग्य है। अवधि शब्द |
| उसका अभाव होने से आगे सिद्धों की गति नहीं होती। मर्यादा वाचक है। जो अनन्त शब्द से पृथग्भूत है, जिसका आचार्य कुन्दकुन्द ने भी श्री नियमसार गाथा 184 में अन्त भी है, सीमा भी है वह अंतावधि है और जिसका न
इस प्रकार कहा है किअंत है और न सीमा है वह अनंतावधि है। अभेददृष्टि से जीवाणं पुग्गलाणंगमणंजाणेहि जावधम्मत्थो। जीव की भी यही संज्ञा है अर्थात् अनंतावधि जिन।
धम्मत्थिकायाभावे, तत्तो परदो ण गच्छंति॥ भावार्थ - जिसका अंत भी नहीं है और सीमा भी | ___ अर्थ - जीव और पुद्गलों का गमन, जहाँ तक नहीं है ऐसे केवलज्ञान के धारी अर्हन्तों को नमस्कार हो। | धर्मास्तिकाय है, वहीं तक जानना चाहिए। धर्मास्तिकाय के
जिनामा - व्या सिट भगवान धर्मास्तिकाय के अभाव | अभाव में उससे आगे गमन नहीं होता है। में लोकान्त के आगे गमन नहीं करते या उनकी उपादान
उपर्युक्त आगमप्रमाणों से यह भली प्रकार सिद्ध होता शक्ति लोकान्त तक ही गमन करने की है? स्पष्ट कीजिए ? | है कि सिद्ध भगवान् में अलोकाकाश में भी जाने की उपादान
समाधान - तत्त्वार्थसूत्र (सोनगढ़ प्रकाशन) में अध्याय | शक्ति है, किन्तु बाह्य सहकारी कारण धर्मद्रव्य का अभाव 10. सत्र 8 के अर्थ में इस प्रकार लिख है- "जीव और | होने से अलोकाकाश में गमन नहीं है। यदि सोनगढ़ मतानुसार पुद्गल की गति स्वभाव से इतनी है कि वह लोक के अन्त | यह मान लिया जाये कि सिद्ध जीव की लोक के अंत तक तक ही गमन करता है, यदि एसा न हो तो अकेले आकाश | ही गमन करने की शक्ति है, तो 'धर्मास्तिकायाभावात्' यह में लोकाकाश और अलोकाकाश ऐसे दो भेद ही न रहें, गमन | सूत्र ही निरर्थक हो जायेगा और सूत्र अनर्थक होता नहीं है, करने वाले द्रव्य की उपादान शक्ति ही लोक के अग्रभाग | क्योंकि वचनविसंवाद के कारणभूत राग द्वेष या मोह से तक गमन करने की है, अर्थात् वास्तव में जीव की अपनी | रहित जिन भगवान् के वचन के अनर्थक होने का विरोध है।
सितम्बर 2006 जिनभाषित 27
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