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चातुर्मास में धार्मिक शिक्षण-प्रशिक्षण
डॉ. ज्योति जैन जनसामान्य के बीच धर्म संस्कृति के प्रचार-प्रसार में । धर्मप्रचार, धार्मिकसंस्कार एवं धर्मप्रभावना की दृष्टि धार्मिक कक्षाओं, शिक्षण शिविरों, स्वाध्याय, पाठशालाओं, | से चातुर्मास का अपना ही महत्त्व है। जहाँ-जहाँ चातुर्मास ग्रन्थों/पुराणों आदि की वाचना का बहुत ही महत्त्व है। आज स्थापित होते हैं, लोगों का उत्साह देखते ही बनता है। आज बच्चों, युवाओं, महिलाओं आदि में धर्म की शिक्षा इन्हीं | जबकि रात्रिकालीन पाठशालायें कम होती जा रही हैं और माध्यमों से मिल रही है। आचार्य समन्तभद्र जी महाराज का लौकिक शिक्षा के बढ़ते दबाव से बच्चे धर्म-शिक्षा से दूर कथन आज के सन्दर्भ में बिल्कुल सटीक है कि "न धर्मो होते जा रहे हैं, तब बच्चों में धार्मिक संस्कार के लिये धार्मिकैर्बिना"। सच भी है कि जब धर्मज्ञ ही नहीं रहेंगे तो | चातुर्मास का समय बड़ा महत्त्वपूर्ण समय है। और बच्चे ही धर्म का अस्तित्व ही खतरे में पड जायेगा'
क्यों युवा, महिलायें, वृद्ध जन सभी इस समय का सदुपयोग ____वर्तमान जीवन शैली और बढ़ती व्यस्तता से धर्म | | कर सकते हैं। चार महीने के शिक्षण-प्रशिक्षण में जैन दर्शन और धार्मिक क्रियाओं के लिये समय निकालना सामान्यजनों | के मूलभूत सिद्धान्तों का ज्ञान तो होता ही है एवं श्रावकों के के लिए असम्भव नहीं तो कठिन अवश्य ही होता जा रहा | क्या कर्त्तव्य और दायित्व हैं, इसका भी बोध होता है। है। यही कारण है कि समाज का बहुसंख्यक वर्ग धार्मिक | साधुवर्ग के सम्पर्क में आने से जहाँ उनकी सम्पूर्ण चर्या को विमुखता की ओर बढ़ता जा रहा है। भौतिक सुख-सुविधाओं | निकट से देखने का अवसर मिलता है, वहीं संयम की में लिप्त व्यक्ति भी जीवन में सुख सन्तुष्टि और शान्ति का | प्रेरणा भी मिलती है। लगता है कि संयम, त्याग, वैराग्य, तप अनुभव नहीं कर पा रहा है। तब आवश्यक है कि उसे | आदि पुस्तकों में ही नहीं पढ़े जाते, व्यवहारिक जीवन में भी उचित मार्गदर्शन मिले, वह दिशा मिले ताकि वह धर्म से | ये विद्यमान हैं। इन सबको कैसे जीवन में उतारा जा सकता जुड़े अपनी संस्कृति को पहचाने और अपने मानव जीवन | है, यह सब भी साधुओं के माध्यम से देखने को मिलता है। को भी सार्थक करें।
सच है, उनकी चर्या देखते हए जीवन में न जाने कब आषाढ़ की अष्टाह्निका से कार्तिक तक का समय | परिवर्तन आ जाये ? कब जीवन को दिशा मिल जाये ? । 'चातुर्मास समय' कहलाता है। जैन धर्म एवं संस्कृति में | चातुर्मास का समय धार्मिक संस्कारों को सिखाने का चातुर्मास का विशेष महत्त्व है। चातुर्मास में आचार्य संघ, | महत्त्वपूर्ण समय है। बच्चों को संस्कारित करते समय छोटीमुनि संघ, आर्यिका संघ, त्यागीगण एवं अनेक विद्वान एवं छोटी बातों की भी जानकारी अवश्य दें। जैसे मन्दिर में श्रावक वर्ग भी वर्षायोग धारण कर चार मास एक ही स्थान बाहर जूता-चप्पल उतारने, हाथ पैर धोने से लेकर दर्शनपर रहते हैं। इन चार महीनों में समाज में धार्मिक वातावरण पूजा विधि, स्वाध्याय, जाप, गंधोदक लेने की विधि आदि। बनता है और धर्म से जुड़े लोगों को चिन्तन, मनन एवं | धार्मिक शिष्टाचार एवं अनुशासन के पाठ पर बल दें। बच्चों जीवन की दिशा मिलती है, धर्म सम्बन्धी संस्कृति, संस्कार | को सरल सुबोध और उनके अनुरूप पुस्तकों द्वारा यदि हम की पृष्ठभूमि भी तैयार होती है। इससे अनेक लोगों के | धार्मिक ज्ञान करायें तो उन्हें ग्रहण करने में सरलता होगी। जीवन में परिवर्तन भी आता है। साधुवर्ग का यह समय | धर्म एवं संस्कृति से जुड़े स्टेज कार्यक्रमों को भी करायें स्वकल्याण का होता है। वे ज्ञान अर्जन, अभ्यास, संयम की (जिनमें टी.वी. प्रोग्रामों की छाप न हो)। आराधना, ध्यान, चिन्तन, मनन करते हैं। सामान्यजनों को आजकल जैन पत्र-पत्रिकायें बड़ी संख्या में छप रही भी साधु-सान्निध्य का भरपूर लाभ मिलता है। चातुर्मास में | हैं, पर देखने में आया कि इनका उपयोग एक वर्ग तक ही जहाँ एक ओर अष्टाह्निका, सोलहकारण, रत्नत्रय दशलक्षण, | सीमित है। जनसामान्य की इन पत्र-पत्रिकाओं में न अभिरुचि सुगंध दशमी, क्षमावाणी आदि पर्यों को साधु संघों के साथ | है, न चेतना। मन्दिरों में इस तरह की व्यवस्था की जाये, मिलकर मनाने का अवसर मिलता है, वहीं विशेष धार्मिक | जैसे रैक आदि की, और उसमें पत्र-पत्रिकायें रखी जायें कक्षायें, शास्त्रों की वाचना, पठन-पाठन, शंका-समाधान | ताकि सामान्य जन पत्र-पत्रिकायें देख सकें, पढ़ सकें और आदि का कार्यक्रम भी होता है।
उन्हें समाज की वर्तमान स्थिति तथा समाज में होने वाली
18 सितम्बर 2006 जिनभाषित
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