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________________ साधु समाधि सुधा साधन आचार्य श्री विद्यासागर जी हर्ष विवाद से परे आत्म-सत्ता की सतत अनुभूति ही सच्ची समाधि है। यहाँ समाधि का “क्या कृष्ण जयन्ती मनानेवाले कृष्ण की बात आप मानते हैं? अर्थ मरण से है। साधु का कृष्ण गीता में स्वयं कह रहे हैं कि मेरी जन्म-जयन्ती न मनाओ। अर्थ है श्रेष्ठ/अच्छा। मेरा जन्म नहीं, मेरा मरण नहीं। मैं तो केवल सकल ज्ञेय ज्ञायक हूँ। अर्थात् श्रेष्ठ/आदर्श मृत्यु को कालिक हूँ। मेरी सत्ता तो अक्षुण्ण है।" अर्जुन युद्ध-भूमि में खड़े साधु-समाधि कहते हैं। साधु' का थे। उनका हाथ अपने गुरुओं से युद्ध के लिये नहीं उठ रहा था। मन दूसरा अर्थ'सज्जन' है। अतः सज्जन के मरण को ही साधु- में विकल्प था कि "कैसे मारूँ अपने ही गरुओं को।" वे सोचते थे समाधि कहेंगे। ऐसे आदर्श मरण को यदि हम एक बार भी चाहे मैं भले ही मर जाऊँ, किन्तु मेरे हाथ से गुरुओं की सुरक्षा होनी प्राप्त कर लें, तो हमारा उद्धार हो सकता है। चाहिये।मोहग्रस्त ऐसे अर्जुन को समझाते हुये श्री कृष्ण ने कहाजन्म और मरण किसका? हम बच्चे के जन्म के साथ जातस्य हि ध्रुवो मृत्युर्भुवो जन्म मृतस्य च। मिष्टान्न वितरण करते हैं। बच्चे के जन्म के समय सभी हंसते तस्मादपरिहार्येऽर्थे न त्वं शोचितुमर्हसि॥ हैं किन्तु बच्चा रोता है । इसलिये रोता है कि उसके जीवन के जिसका जन्म है, उसकी मृत्यु अवश्यम्भावी है और जिसकी इतने क्षण समाप्त हो गये। जीवन के साथ ही मरण का भय मृत्यु है, उसका जन्म भी अवश्य होगा। यह अपरिहार्य चक्र है। शुरू हो जाता है। वस्तुतः जीवन और मरण कोई चीज नहीं इसलिये हे अर्जुन! सोच नहीं करना चाहिये। है। यह तो पुद्गल का स्वभाव है, वह तो बिखरेगा ही। अर्जुन! उठाओ अपना धनुष और क्षत्रिय धर्म का पालन आपके घरों में पंखा चलता है। पंखे में तीन पंखुड़िया करो। सोचो, कोई किसी को वास्तव में मार नहीं सकता। कोई होती हैं। ये सब पंखे के तीन पहलू हैं और जब पंखा चलता किसी को जन्म नहीं दे सकता। इसलिये अपने धर्म का पालन है तो एक मालूम पड़ते हैं। ये पंखुड़ियाँ उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य श्रेयकर है। जन्म-मरण तो होते ही रहते हैं। आवीचिमरण तो की प्रतीक हैं और पंखे के बीच का डंडा जो घूमता है सत् का प्रतिसमय हो ही रहा है। कृष्ण कह रहे हैं अर्जुन से और हम हैं प्रतीक है। हम उसकी शाश्वतता को नहीं देखते, केवल केवल जनम-मरण के चक्कर में, क्योंकि चक्कर में भी हमें जन्म-मरण के पहलुओं से चिपके रहते हैं, जो भटकने/ शक्कर-सा अच्छा लग रहा है। घुमाने वाला है। तन उपजत अपनी उपज जान समाधि ध्रुव है, वहाँ न आधि है, न व्याधि है और न ही तन नशत आपको नाश मान कोई उपाधि है। मानसिक विकार का नाम आधि है, रागादि प्रकट जे दुःख दैन शारीरिक विकार व्याधि है। बुद्धि के विकार को उपाधि कहते तिन ही को सेवत गिनत चैन हैं। समाधि मन, शरीर और बुद्धि से परे हैं। समाधि में न राग हम शरीर की उत्पत्ति के साथ अपनी उत्पत्ति और शरीरहै,न द्वेष है,न हर्ष है और न विषाद। जन्म और मृत्यु शरीर के मरण के साथ अपना मरण मान रहे हैं। अपनी वास्तविक सत्ता का हैं। हम विकल्पों में फँस कर जन्म-मृत्यु का दुःख उठाते हैं। हमको भान ही नहीं। सत् की ओर हम देख ही नहीं रहे हैं। हम अपने अन्दर प्रवाहित होने वाली अक्षुण्ण चैतन्य धारा का हमें जीवन और मरण के विकल्पों में फँसे हैं, किन्तु जन्म-मरण के कोई ध्यान ही नहीं। अपनी त्रैकालिक सत्ता को पहिचान पाना बीच जो ध्रुव सत्य है उसका चिन्तन कोई नहीं करता। साधुसरल नहीं है। समाधि वही है, जिसमें मौत को मौत के रूप में समाधि तो तभी होगी,जब हमें अपनी शाश्वत सत्ता का अवलोकन नही देखा जाता है, जन्म को भी अपनी आत्मा का जन्म नहीं होगा। अतः जन्म-जयन्ती न मनाकर हमें अपनी शाश्वत सत्ता का माना जाता। जहाँ न सुख का विकल्प है और न दुःख का। ही ध्यान करना चाहिये, उसी की सँभाल करनी चाहिये। आज ही एक सज्जन ने मुझ से कहा “महाराज, कृष्णजयन्ती है आज।” मैं थोड़ी देर सोचता रहा। मैंने पूछा 'समग्र' (चतुर्थ खण्ड) से साभार Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524309
Book TitleJinabhashita 2006 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2006
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size5 MB
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