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________________ मोक्ष मार्ग की द्विविधिता हैं। मूलचंद लुहाड़िया जैन साहित्य के प्रथम संस्कृत सूत्रग्रंथ मोक्षशास्त्र के | है, तथापि सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्र की उत्पत्ति से लेकर पूर्णता प्रथम अध्याय के प्रथम सूत्र “सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि | को प्राप्त होने तक के काल में रहनेवाले अपूर्ण रत्नत्रय को मोक्षमार्गः" के द्वारा मोक्षमार्ग का वर्णन किया गया है। यह | व्यवहार-रत्नत्रय या व्यवहारमोक्षमार्ग कहा गया है और रत्नत्रय जीव बँधा हुआ है, परतंत्र है, इसी कारण दुःखी है। इस | की पूर्णता को प्राप्त होने पर तुरंत मोक्ष को प्राप्त करा बंधन से मुक्त होने पर सुखी हो सकता है, इसलिए मोक्ष | देनेवाले पूर्ण रत्नत्रय को निश्चयमोक्षमार्ग बताया गया है। (मुक्त अवस्था) प्राप्त करने का पुरुषार्थ ही इस जीव का | व्यवहार और निश्चय एक ही रत्नत्रय की पर्वोत्तर अवस्थाएँ मुख्य उद्देश्य होना चाहिए। जीव के भौतिक बंधन यह देह है। रत्नत्रय के सत्यार्थ रूप को अर्थात् उसके पूर्ण रूप को और पौद्गलिक कर्म हैं, जो जीव को बलात् देह के बंधन में | निश्चयमोक्षमार्ग और उस पूर्ण रूप के कारणभूत अपूर्ण बाँधे रखकर कर्मो के फलों को भोगने के लिए विवश करते रत्नत्रय को व्यवहार मोक्षमार्ग बताया गया है। इस प्रकार रत्नत्रयरूप मोक्षमार्ग एक होते हुए भी पूर्वोत्तर अवस्थाओं के इन भौतिक बंधनों के मल कारण अंतरंग बंधन | भेद को दष्टि में रखकर दो प्रकार का निरूपण किया गया वैचारिक बंधन है। उन वैचारिक बंधनों की ओर इस जीव है। व्यवहार मोक्षमार्ग एवं निश्चय मोक्षमार्ग में साधनसाध्य का प्रायः ध्यान नहीं जाता है। वस्तुतः इस जीव को भौतिक अथवा कारण-कार्यसंबंध है। निश्चय रत्नत्रय प्राप्त होते ही बंधन भी वैचारिक बंधन के अस्तित्व में ही दुःखी कर पाते तरंत मोक्ष प्राप्त हो जाता है। यही मोक्षमार्ग का अथवा रत्नत्रय हैं। वैचारिक असमीचीनता ही वैचारिक बंधन है। जीव की | का सत्यार्थ या पूर्ण रूप है। इस सत्यार्थ रूप निश्चय या पूर्ण 'अंतरंग अथवा वैचारिक परिणति श्रद्धा, ज्ञान और चारित्र के | रत्नत्रय की प्राप्ति का कारणभूत वह उत्पत्ति से लेकर पूर्णता रूप में तीन प्रकार की होती है। श्रद्धा, ज्ञान और चारित्र की | को प्राप्त होने के काल तक पाया जाने वाला व्यवहाररत्नत्रय मिथ्या परिणति बंधन है, दुःख का कारण है और श्रद्धा है। यद्यपि व्यवहाररत्नत्रय से तुरंत मोक्ष प्राप्त नहीं होता है, चारित्र की समीचीन परिणति बंधनमुक्ति (मोक्ष) का कारण | तथापि व्यवहार रत्नत्रय से निश्चयरत्नत्रय और निश्चयरत्नत्रय है या मोक्षमार्ग है। से तुरंत मोक्ष प्राप्त हो जाता है। इसलिए व्यवहाररत्नत्रय भी आचार्य उमास्वामी महाराज ने मोक्षमार्ग शब्द का | मोक्ष के साक्षात् कारण का कारण होने से मोक्ष का परंपराएक वचनात्मक प्रयोग कर एक ही मोक्षमार्ग है, ऐसा कहा | | कारण कहा जाना चाहिए। है। किंतु आचार्य अमृतचन्द्र ने मोक्षमार्ग को दो प्रकार का व्यवहार सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्र को सराग सम्यग्दर्शनबताया है ज्ञानचारित्र एवं निश्चय सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्र को वीतराग निश्चयव्यवहाराम्यां मोक्षमार्गो: द्विधा स्थिता। सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्र भी कहते हैं। रत्नत्रय की अपूर्ण दशा में तत्रादौ साध्यरूपं स्याद्वितीयस्तस्य साधनम्॥ आत्मा में संज्वलनजनित, प्रत्याख्यानावरणजनित अथवा अप्रत्याख्यानावरणजनित रागभाव रहता है, अतः उस समय इसी बात को छहढालाकार पं. दौलतराम जी ने इस रागभावसहित सम्यग्दर्शनज्ञानचरित्र रहते हैं। रत्नत्रय की पूर्णता प्रकार कहा है होने पर पूर्ण वीतराग दशा प्राप्त हो जाती है अतः उस समय सम्यग्दर्शन ज्ञान चरण शिवमग सो दुविध विचारो। का सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्र वीतराग नाम पा जाता है। रत्नत्रय जो सत्यारथ रूप सो निश्चय कारण सो व्यवहारो॥ | के सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्र रूप तीन भेद, व्यवहार या सराग सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र अर्थात् रत्नत्रय की एकतारूप | दशा में ही अनुभव में आते हैं, किंतु सम्पूर्ण कषायों के मोक्षमार्ग वस्तुतः एक प्रकार का ही है। दो प्रकार के मोक्ष | अभाव से उत्पन्न वीतराग दशा प्राप्त हो जाने पर भेद का मार्ग का प्ररूपण दो अलग-अलग मार्ग होने की दृष्टि से | विकल्प ही अनुभव में नहीं रहता। अतः वीतराग या निश्चय नहीं किया गया है, किंत रत्नत्रय की आंशिक एवं पर्ण | रत्नत्रय को अभेदरत्नत्रय एवं सराग या व्यवहाररत्नत्रय को अवस्था को दृष्टि में रखकर दो भेदों का प्ररूपण किया गया | भेदरत्नत्रय भी कहते है। है। यद्यपि मोक्षमार्ग तो रत्नत्रय की एकता के रूप में एक ही इस प्रकार जिनागम में सम्यग्दर्शनज्ञानचरित्र रूप एक - सितम्बर 2006 जिनभाषित 13 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524309
Book TitleJinabhashita 2006 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2006
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size5 MB
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