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________________ उक्त श्लोक कब, किसने रचा यह ज्ञान नहीं हैं। किन्तु इससे जिनशासन में आचार्य कुन्दकुन्द का कितना महत्त्व है यह स्पष्ट हो जाता है। उत्तरकाल में भट्टारकपरम्परा का प्रवर्तन होने पर भी सबने अपने को कुन्दकुन्दाम्नायी ही स्वीकार किया है । प्रतिष्ठित मूर्तियों पर प्रायः मूलसंघ, कुन्दकुन्दान्वय का उल्लेख अंकित पाया जाता है। सिद्धान्त और अध्यात्म या व्यवहार और निश्चय के मध्य में भेद की दीवार जैसी खड़ी की जा रही है, उसकी ओर से सम्बुद्ध पाठकों और विद्वानों को सावधान करूँ। सबसे प्रथम हमें यह देखना होगा कि सिद्धान्त की क्या परिभाषा है और अध्यात्म की क्या परिभाषा है । षट्खण्डागम सिद्धान्त के नाम से प्रसिद्ध है । जयधवला की प्रशस्ति में टीकाकार जिनसेनाचार्य ने लिखा है- 'सिद्धानां कीर्तनादन्ते यः सिद्धान्तः प्रसिद्धिभाक् ।' अर्थात् सिद्धों का वर्णन अन्त में होने से, जो सिद्धान्त नाम से प्रसिद्ध है। इसका आशय यह है कि संसारी जीव का वर्णन प्रारम्भ करके उसके सिद्ध पद तक पहुँचने की प्रक्रिया का जिसमें वर्णन होता है, उसे सिद्धान्त कहते हैं, जैसे तत्त्वार्थसूत्र में संसारी जीव के स्वरूप का वर्णन प्रारम्भ करके अन्तिम दसवें अध्याय के अन्त में सिद्धों का वर्णन है। इसी प्रकार जीवकाण्ड में गुणस्थानों और मार्गणाओं के द्वारा जीव का वर्णन करके अन्त में कहा है । इन आचार्य कुन्दकुन्द को अध्यात्म का प्रणेता या प्रमुख प्रवक्ता माना जाता है । इन्होंने जहाँ षट्खण्डागमसिद्धान्त पर परिकर्म नामक व्याख्या रची, वहाँ इन्होंने समयसार, प्रवचनसार, पञ्चास्तिकाय, नियमसार जैसे ग्रन्थ भी रचे । इस तरह आचार्य कुन्दकुन्द सिद्धान्त और अध्यात्म दोनों के ही प्रवक्ता थे । हम शास्त्र के प्रारम्भ में यह श्लोक पढ़ते हैं मङ्गलं भगवान् वीरो मङ्गलं गौतमो गणी । मङ्गलं कुन्दकुन्दार्यो जैनधर्मोऽस्तु मंगलम् ॥ इसमें भगवान महावीर और गौतम गणधर के पश्चात् ही आचार्य कुन्दकुन्द को मङ्गल-स्वरूप कहा है। और उनके पश्चात् जैनधर्म को मंगलस्वरूप कहा है। - Jain Education International - गुणजीवठाणरहिया सण्णा पज्जत्ति पाणपरिहीणा । सणवमग्गणूणा सिद्धा सुद्धा सदा होंति ॥ 732 ॥ अर्थात् सिद्ध जीव गुणस्थान से रहित, जीवस्थान से रहित, संज्ञा-पर्याप्ति-प्राण से रहित और चौदह में से नौ मार्गणाओं से रहित सदा शुद्ध होते हैं । अतः तत्त्वार्थसूत्र, गोम्मटसार जैसे ग्रन्थ जो षट्खण्डागम सिद्धांत के आधार पर रचे गये हैं, सिद्धान्त कहे जाते हैं । आचार्य कुन्दकुन्द के प्रथम टीकाकार आचार्य अमृतचन्द्र जी थे । आचार्य अमृतचन्द्र जी के टीकाग्रन्थों ने अध्यात्मरूपी प्रासाद पर कलशारोहण का कार्य किया । इसी में समयसार की टीका से आगत पद्यों के संकलनकर्ता ने उसे समयसार - कलश नाम दिया। इन्हीं कलशों को लेकर कविवर बनारसीदास ने हिन्दी में नाटक - समयसार रचा, जिसे सुनकर हृदय के फाटक खुल जाते हैं। किन्तु अमृतचन्द्र जी ने केवल समयसारादि पर टीकाएँ ही नहीं लिखीं, तत्त्वार्थसूत्र के आधार पर तत्त्वार्थसार जैसा ग्रन्थ भी रचा तथा जैन श्रावकाचार पर पुरुषार्थसिद्धयुपाय जैसा ग्रन्थ रचा। और उनका एक अमूल्य ग्रन्थरत्न तो अभी ही प्रकाश में आया, जिसमें 25-25 श्लोकों के 25 प्रकरण हैं । यह स्तुतिरूप ग्रन्थरत्न एक अलौकिक कृति जैसा । अत्यन्त क्लिष्ट है, शब्द और अर्थ दोनों ही दृष्टियों से अति गम्भीर हैं। विद्वत्परिषद् के मंत्री पं. पन्नालाल साहित्याचार्य ने बड़े श्रम से श्लोकों का अभिप्राय स्पष्ट करने का प्रयत्न किया है। उसी के आधार पर अंग्रेजी अनुवाद के साथ यह ग्रन्थरत्न सेठ दलपतभाई, लालभाई जैन विद्या संस्थान अहमदाबाद से प्रकाशित हुआ है। उससे व्यवहार और निश्चय दृष्टि पर विशेष प्रकाश पड़ने की पूर्ण सम्भावना है। यह सब लिखने का मेरा प्रयोजन यह है कि आज जो को सुनना भी व्यर्थ समझते हैं । फलतः आज समयसार का 8 सितम्बर 2006 जिनभाषित एक शुद्ध आत्मा को आधार बनाकर जिसमें कथन होता है उसे अध्यात्मग्रन्थ कहते हैं। जैसे समयसार के जीवाजीवाधिकार के प्रारम्भ में कहा है कि जीव के रूप, रस, गन्ध, स्पर्श, संस्थान, संहनन, वर्ग, वर्गणा, जीवस्थान, बन्धस्थान आदि नहीं हैं । अर्थात् गोम्मटसार में प्रारम्भ से ही जिन बातों को आधार बनाकर संसारी जीव का वर्णन किया गया है, समयसार के प्रारम्भ में ही शुद्ध जीव का स्वरूप बतलाने की दृष्टि से उन सबका निषेध किया है। इससे पाठक भ्रम में पड़ जाता है और वह अपनी दृष्टि से एक को गलत और दूसरे को ठीक मान बैठता है। इसी से विवाद पैदा होता है। जिसने पहले गोम्मटसार पढ़ा है, वह समयसार को पढ़कर विमूढ़ जैसा हो जाता है और जो समयसार पढ़ते हैं वे सिद्धांतग्रन्थों से ही विमुख हो जाते हैं, क्योंकि सिद्धांतग्रन्थों में उन्हीं का वर्णन है, जिन्हें समयसार में जीव का नहीं कहा। अतः वे केवल शुद्ध जीव का वर्णन सुनकर ही आत्म विभोर हो जाते हैं और अपनी वर्तमान दशा और उसके कारणों For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524309
Book TitleJinabhashita 2006 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2006
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size5 MB
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