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________________ साधना स्वर्ग का साधन नहीं, मोक्ष का पथ है o आचार्य श्री विद्यासागर जी मानव ही महान् बनने की पात्रता रखता है। साधना स्वर्ग हुआ। वृक्ष के छत्ते से मधुरस की का साधन नहीं मोक्ष का पथ है । संसार, स्वर्ग और मोक्ष का अन्तर बूंदे टपक रही थीं। एक बूंद मधुरस यह है कि मोक्ष के जीवों को शारीरिक, मानसिक, वाचनिक से तृप्ति नहीं मिली। कुछ बूंदे और परिश्रम की आवश्यकता नहीं होती। स्वर्ग के देवों की आयु पी लूँ, फिर वाहन में सवार हो गमनागमन में व्यतीत होती है। वैभव का उपभोग एवं सुविधा का जाऊँ। मधुरस के मधुर स्वाद के भोग करने वाले दैवीय दम्पती की कामना मानवजन्म लेकर लिए आतुर संकटग्रस्त व्यक्ति को महान् बनने की रहती है। महान् बनने की क्षमता मानव में कुछ मधुमक्खियों ने काट लिया, विद्यमान है। अधर के देव धरा के जीवों के दुखों से द्रवित हो जाते किन्तु मधुरस का मोह टूट नहीं रहा। हैं। संसार कितना कष्टकारी है, चारों ओर मौत मँडरा रही है। वन से आ रहे गजराज ने वृक्ष पर सुख ऐश्वर्य का जीवन व्यतीत करने वाले देवों को, आयु सीमा प्रहार किया। लटों में झूल रहा पूर्ण होने के छ: माह पूर्व ज्ञान हो जाता है कि भोगों के छूटने का व्यक्ति गहन अंधकारमय कुएँ में जा समय सन्निकट है। उदासी छा जाती है, आगामी जीवन की गिरा। जिन लटों में वह झूल रहा था, चिन्ता व्याप्त हो जाती है। सुदीर्घ जीवन सुखमय बीता, छह माह उन लटों को श्वेत और श्यामवर्ण के दो चूहे कुतर रहे थे। कुएँ में गिरते चिन्ता में। क्या मिलेगा, क्या मानव से महान बन सकूँगा ? क्या ही सहायता के लिए उत्सुक देव-दम्पती भी रवाना हो गए। मोह-लोभ मुक्ति मिलेगी ? संसार के वृक्ष से मोह का मधुरस टपक रहा है। के बंधन से सदा अंधेरे कुएँ में ही गिरना होता है। कोई बचाना चाहे तो मोह से मुक्त हों, तो मुक्ति पथ पर पग धरें। शिशु जन्म लेता है भी बच नहीं सकते। इस बंधन से मुक्त होते ही मुक्ति का पथ दिखने मुट्ठी बाँधकर,गए हाथ पसार कर। मुट्ठी में बंद अनेक संभावनाएँ लगता है। यह संसार उसी विशाल वृक्ष की भाँति है, जिसकी आयु की लेकर आए थे, लुटकर चले गए। तेल और बाती के बिना दीपक लटों में जीव लटक रहे हैं, इन लटों को काल मूषक काट रहे हैं। काला नहीं जलता, जलाने के सभी प्रयास व्यर्थ । प्राणरहित काया न मूषक कृष्ण पक्ष का तो श्वेत मूषक शुक्ल पक्ष का द्योतक है। विषयभोग टिकेगी,न डुलेगी, इसमें प्राण नहीं डाल सकते। जो चलता था वो के मधुरस की बूंदों में खोकर कालरूपी गजराज के प्रहार से बच नहीं चला गया, जो रह गया वह निरर्थक है। अर्थी में वे जाते हैं, अग्नि सकते। काल आता है, तो साथ लेकर जाता है। किसी रिश्वत से काल में समर्पित करने के पूर्व सभी वस्त्र आभूषण उतार लेते हैं, कुछ । को टाल नहीं सकते। काल अटल है। सुख की एक बूंद की लिप्सा भी साथ नहीं रहता। ज्येष्ठ पुत्र आग लगाता है। सारे सम्बन्ध सहायता की बार बार पुकार पर भारी पड़ती है। मधुरस की एक एक समाप्त हो गए, कोई नहीं रुका। तेरह दिन पश्चात् तेरा सो तेरा, बूंद की चाह ने संसारसागर में बाँध रखा है। शेष सभी मेरा । संसार ठहरता नहीं, चलता रहता है। आवागमन धन्य हैं वे महापुरुष, जिन्होंने संसार को समझा। संसार से मुक्त है। याद में कोई रोता है, तो समझाते हैं 'रोओ मत',बच्चों की ओर होकर, मुनियों को मुक्ति का पथ दिखाया। चिडिया द्वारा खेत चुगे जाने देखो, इनका ध्यान रखो। जो गया उससे क्या नाता। जब चलता के पूर्व प्रबंध करना चाहिए। फलेगा वही जो बोया जाएगा। जैसा फल था, तब परिवार को चलाता था, सो नाता था, अब चला गया तो चाहते हैं, वैसी ही फसल के लिए उपयुक्त बीज बोने की आवश्यकता नाते टूट गए। संसार का यह रूप,संयोग और वियोग, कोई वस्तु है। बीज बोने का क्रम जारी है। ऐसा बीज बोया जा सकता है कि बार नहीं, कर्मों की गति है। पराया अपना लगता था, लगना ही भ्रम । बार बोने की आवश्यकता न हो। असंख्यात जीवों का आवागमन जारी है, काया से आत्मतत्त्व पृथक् है। बार बार मरण काया का होता है, मोहबन्धन के विशाल वृक्ष की लटें चारों ओर फैली हुई । आत्मा अमर है। आत्मतत्त्व के अभाव में काया जड़ हो जाती है, न हैं। एक ओर गहरी खाई है, दूसरी ओर सघन अंधकार युक्त । हिलेगी न डुलेगी,न उठेगी। नामोनिशान मिट जाता है । नाम भी समाप्त, कुआँ । लटों से लटके व्यक्तित्व की दशा से द्रवित देवपत्नी ने पति नाम का निशान भी समाप्त। पुराणग्रन्थों से अनेक महान् आत्माओं की से सहायता करने का आग्रह किया। पत्नी के बारम्बार अनुरोध से गौरव गाथाओं का ज्ञान होता है, क्या जीवन था! गुणगान करते हैं, देवपति अपना वाहन,संकट से घिरे व्यक्ति के समीप ले गया एवं गौरव की अनुभूति होती है। अपने जीवन में इतना काम किया और ऐसा संकटग्रस्त को वाहन में सवार हो जाने का निमंत्रण दिया। एक काम किया कि क्रान्ति हो गई, कांति व्याप्त हो गई। बन्द मुट्ठी तो लाख बार, दो बार, अनेक निमंत्रण पर भी वह वाहन में सवार नहीं की,खुल गई तो राख की। राख होने के पहले जागना जरूरी है। है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524308
Book TitleJinabhashita 2006 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2006
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size5 MB
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