________________
जैन पाठशाला : आवश्यकता और शिक्षण पद्धति
जैन पाठशाला जैनत्व को अक्षुण्ण बनाए रखने, उसका पोषण एवं संवर्द्धन करने का सशक्त माध्यम है । यहाँ जैनदर्शन, जैन सिद्धांतों, परम्पराओं, श्रावकोचित आचरण आदि की सैद्धांतिक एवं प्रायोगिक शिक्षा दी जाती है।
अपनी संस्कृति को विषम परिस्थितियों में भी अक्षुण्ण बनाए रखने के लिए पाठशालाएँ अपरिहार्य हैं क्योंकि जैन पाठशाला एक ऐसा शिक्षा केन्द्र है, जहाँ जैनदर्शन एवं उसके मूलभूत सिद्धांतों की शिक्षा दी जाती है। जीवनयापन केन्द्रित शिक्षा संस्थाओं से अलग, जैन पाठशाला संस्कार निर्माण की महत्त्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह करती है । यद्यपि शिक्षा की परिभाषा में बालक के सर्वांगीण विकास की चर्चा की जाती है । जिसमें शिक्षा के साथ-साथ बालक के सामाजिक, शारीरिक, नैतिक, नागरिक, सांस्कृतिक, मानसिक आदि के विकास समाहित हैं, किन्तु यदि वर्तमान सामान्य लौकिक शालाओं का सर्वेक्षण किया जावे तो वहाँ मात्र जानकारी दी जाती है, ज्ञान या शिक्षा नहीं । पाठशाला मस्तिष्क परिशोधन का साधन
वर्तमान में टी०वी० सीरियल, सिनेमा, यूथ क्लब, सायबर कैफे, अश्लील इन्टरनेट आदि की भरमार है । जहाँ बालक और युवा-युवतियाँ आकर्षित होकर नैतिक आचार विचार से पतनोन्मुख हो रहे हैं। जैन बालक, युवा एवं युवतियाँ इससे अछूते नहीं हैं। इसका मूल कारण बचपन में जैन संस्कारों का अभाव है। यदि लौकिक शिक्षा के साथ-साथ जैनदर्शन के मूल सिद्धांतों / परम्पराओं का भी शिक्षण मिले तो बालकों को भटकने से बचाया जा सकता है। जैनदर्शन का मात्र सैद्धांतिक ज्ञान या जानकारी देना जैन पाठशाला का उद्देश्य नहीं है अपितु उन्हें संस्कारवान् बनाना भी महत्त्वपूर्ण उद्देश्य है। वर्तमान में लौकिक शिक्षा के लिये अधिकांश जैन छात्र प्राय: अंग्रेजी माध्यम के कान्वेंट स्कूलों में पढ़ते हैं जहाँ के वातावरण का दुष्प्रभाव उनके आचार-विचार पर पड़ता है। अतः जैन पाठशाला ऐसे बालक बालिकाओं के लिये (मस्तिष्क परिशोधन) का कार्य करती है । यहाँ उन्हें व्यसनों, हिंसा आदि पाँच पापों, रात्रिभोजन से होने वाली हानियों से परिचित कराती है। उनमें विनयशीलता, देव, शास्त्र, गुरु के प्रति श्रद्धा, देवपूजा आदि की प्रायोगिक शिक्षा दी जाती है।
26 / जनवरी-फरवरी 2006 जिनभाषित
Jain Education International
डॉ. प्रेमचंद जैन
मनोविज्ञान के अनुसार बालक का मस्तिष्क एक कोरी स्लेट के समान है, जिस पर जो चाहो लिख लो। एक शिक्षा मनोविज्ञानी का कथन था कि मुझे ५० या १०० बालक दे दीजिये और मेरी अपनी दुनियाँ, मैं जिसे चाहूंगा उसे इंजीनियर, डॉक्टर, वैज्ञानिक, चोर, डाकू या हत्यारा बना दूंगा। तात्पर्य यह है कि बचपन के संस्कार ही बालक के भावी व्यक्तित्व के निर्माण में सहायक या बाधक होते हैं। अतः पाठशालाओं के माध्यम से उनका मस्तिष्क परिशोधन जरूरी है ताकि वे जैन कुलाचार अनुरूप आचरणवान बनें। पाठशाला मानसिक रोग की औषधि
प्राचीन यूनानी विचारक प्लेटो के 'अनुसार, 'शिक्षा मानसिक रोगों की मानसिक औषधि है।' प्लेटो की उक्त उक्ति वर्तमान के परिप्रेक्ष्य में शत प्रतिशत सत्य है। आज अनेक नई-नई कुरीतियों से युवा युवतियाँ ग्रसित होते जा रहे हैं। पाश्चात्य सभ्यता और टी०वी० का अन्धानुकरण करके युवक-युवतियाँ ऐसे वस्त्र पहनने लगे हैं, जिन्हें देखकर सभ्य एवं सज्जन समाज शर्मसार हो जाता है। जयजिनेन्द्र के स्थान पर 'हायहैलो' संबोधन का रिवाज बढ़ता ही जा रहा है। घरों में बालक-बालिकाओं के कक्षों में परमपूज्य आचार्य श्री, मुनियों आदि के चित्रों के स्थान पर क्रिकेट खिलाड़ियों, अभिनेता, अभिनेत्रियों के चित्र लगे रहते हैं। बड़ी संख्या में युवकयुवतियाँ धूम्रपान, गुटखा आदि की लत के शिकार भी हो रहे हैं। अश्लील गाने व अश्लील सी०डी० देखने सुनने का रिवाज भी चल पड़ा है। पाठशालाएँ इस प्रकार की अनेक कुरीतियों के दुष्परिणामों से परिचित कराकर उन्हें दूर करने का सफल माध्यम है। ये सब मानसिक रोग हैं जिनकी औषधि समुचित शिक्षा ही है, जो पाठशाला में ही संभव है, लौकिक शिक्षा संस्थानों में विद्यार्थी को बुद्धिमान् तो बनाया जा सकता है लेकिन विवेकवान तो पाठशाला ही बनायेगी। पाठशाला : अशुद्धियों का परिमार्जन
वर्तमान में पाठशाला की आवश्यकता एक अन्य दृष्टि से भी है। आज भी जैन धर्मानुयायी अपने धर्म, देव, शास्त्र, गुरु के प्रति असीम श्रद्धा रखते हैं किन्तु ज्ञान के अभाव में उनकी ये समस्त क्रियायें रूढ़िवत हो गई हैं। पूजा करते हैं किन्तु पूजा का अर्थ बोध का अभाव है। अधिकांश प्रौढ़
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org