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________________ है? प्रश्न-जिनयज्ञकल्प अपरनाम प्रतिष्ठासारोद्धार यानि । है। वहाँ अरिहंत, सिद्ध ऋषिवाची मंत्रों के आगे तो 'नमः' आशाधर प्रतिष्ठापाठ के अध्याय ३ श्लोक ५० में अच्युतादेवी शब्द का प्रयोग किया है और सुरेन्द्र निस्तारकादि मंत्रों के के लिये "प्रणौमि''(नमस्कार करता हूँ) यह कैसे लिखा | आगे सिर्फ 'स्वाहा' शब्द का प्रयोग किया है कहीं भी नमः शब्द का प्रयोग नहीं किया है। स्वाहा आह्वान के लिये है और उत्तर-जैन ग्रन्थ उद्धारक कार्यालय बम्बई से वि.सं. १९७४ नमः पूजन के लिये है। में मुद्रित प्रति का पाठ गलत है। हमने आमेर शास्त्र भण्डार ___ 'स्वाहा' शब्द का प्रयोग करने से बहुत से लोग ऐसा की वि.सं. १५९० की प्राचीन हस्तलिखित प्रति मंगाकर | | समझते हैं कि-अग्नि में आहुति देना उन देवों की पूजा देखी तो उसमें 'प्रणीमि' की जगह 'प्रणामि' (संतुष्ट करता | करना है, किन्तु ऐसा नहीं है। स्वाहा और आहुति शब्दों का हूँ) शुद्ध पाठ मिला है। अर्थ आह्वान करना, स्मरण करना है, इस क्रिया की देवदेवियों की पूजा भक्ति की रूढ़िवश अविवेकी | बाह्याभिव्यक्ति के लिए जल में भी अग्नि में द्रव्य अर्पण प्रतिलिपिकरों ने ऐसे गलत पाठ बना दिये हैं। शुद्धपाठ | किया जाता है अथवा ठोने आदि में पुष्पक्षेपण किया जाता है प्रणामि (संतुष्ट करता हूँ) ही है इसकी पुष्टि उपरोक्त श्लोकों | यह पूजा नहीं है किन्तु आह्वान मात्र है। के आगे पीछे के श्लोक ५४, ४५ तथा १९०, १९१ में दिये | 'स्वाहा' शब्द का प्रयोग मंत्र की पूर्ति के लिए भी होता है 'प्रीणिता:', 'प्रमोदस्व', 'तर्पयामि' 'प्रीणयामि' पाठों में भी | यानि आखिर में 'स्वाहा' लिखकर उस मंत्र की समाप्ति की होती है। ये सब पाठ भी 'सन्तुष्ट करता हूँ' इस अर्थ के ही सूचना दी जाती है यथा ॐ ह्रीं श्रीपीठं स्थापयामि स्वाहा। वाचक हैं। ॐ ह्रीं कलशोद्धरणं करोमि स्वाहा। (अभिषेकपाठ संग्रह - 'अभिषेकपाठसंग्रह' पुस्तक में जितने अभिषेकपाठ दिये | पृ. ४२-४४) हैं, उनमें एवं अन्य अभिषेकपाठों में तथा प्रतिष्ठादि ग्रन्थों में | इस विषय में विशेष जिज्ञासुओं को 'महावीर जयन्ती जो अनेक मंत्र-यंत्र दिये हैं, उन सब में सिर्फ पंचपरमेष्ठीवाचक | स्मारिका १९७०' में प्रकाशित हमारा लेख"पीठिकादि मंत्र नामों के आगे ही नम: शब्द का प्रयोग किया गया है, चतुर्णिकाय और शासनदेव" देखना चाहिये। देवों के लिये कहीं भी नमः शब्द का कोई प्रयोग नहीं किया प्रश्न-अकृत्रिम चैत्यालयों की पूजा में लिखा है - गया है, इन देवों के लिये तो सिर्फ स्वाहा शब्द का प्रयोग | 'वंदेभावन व्यन्तरान् द्युतिवरान् कल्पामरान् सर्वगान्' इसमें किया गया है। चतुर्णिकाय देवों को नमस्कार बताया है। यह कैसे? देवसेनकृत'भावसंग्रह' गाथा ४४३ से ४७० तक सिद्धचक्र उत्तर-यह पाठ ही अशुद्ध है, शुद्धपाठ जैन सिद्धान्त भवन, यंत्र, शांतिचक्र यंत्र. पंचपरमेष्ठी चक्र यंत्रों का वर्णन है। इन | आरा आदि ग्रंथ भंडारों की हस्तलिखित प्रतियों में इस प्रकार सबमें बताया है कि- मध्य में ॐ अर्हद्भ्यो नमः इत्यादि | है:-"वंदे भावनव्यंतर द्युतिवरस्वर्गामरावासगान्"। अर्थात् लिखकर पंचपरमेष्ठी की स्थापना करना चाहिये और उनके | भवनवासी, व्यंतर, ज्योतिष्क और कल्पवासी देवों के आवासों परिकर रूप में भवनत्रिक देवों के लिए देवदेव्यै स्वाहा | में विद्यमान अकृत्रिम चैत्यालयों को नमस्कार हो। पूजा का लिखकर देवों का स्थापन करना चाहिये। इनमें कहीं भी नाम भी “कृत्रिमाकृत्रिम चैत्यालय पूजा'' है, पूजा के अंत देवदेवियों के लिए नमः शब्द का कोई प्रयोग नहीं किया | में जो मंत्र भाग दिया है, उसमें भी यही नाम दिया है। देखोगया है। गाथा ४६८ में इन सब यंत्रों को स्पष्टतया पंचपरमेष्ठी | "ॐ ह्रीं त्रिलोकसम्बन्धिकृत्रिमाकृत्रिमचैत्यालयेभ्योऽर्थ्य वाचक ही बताया है (कहीं भी देव-देवी, यंत्र-मंत्र नहीं | निर्वपामीति स्वाहा''। कहीं भी चतुर्णिकाय देवों की वंदनाबताया है) देखो :- . पूजा नहीं बताई है, किन्तु सर्वत्र चतुर्णिकाय देवों के निवास ए ए जंतुद्धारे पुज्जइ परमेट्ठि पंचअहिहाणे। स्थानों में विद्यमान अकृत्रिम चैत्यालयों की वंदना-पूजा बताई इच्छइ फलदायारो पावघणपडल हतारो॥१६८॥ है। उपर्युक्त पूजा के श्लोक नं. ३ और ५ में भी पुनः यही अर्थात्-ये यंत्रोद्धार पंचपरमेष्ठीवाचक है, इनकी पूजा करने प्ररूपण किया है :से इच्छानुसार फल की प्राप्ति होती है तथा पापरूपी बादलों वनभवन गतानां दिव्यवैमानिकानां। के पटल विनष्ट हो जाते हैं। जिनवरनिलयानां भवितोऽहं समरामि ॥३१॥ महापुराण में जिनसेनाचार्य ने पीठिकादि अनेक मंत्र लिखे ........................ व्यंतरे स्वर्गलोके। हैं, उनमें कहीं भी शासनदेवों का नामोल्लेख तक नहीं किया | ज्योतिर्लोकेऽभिवंदे भवनमहितले यानि चैत्यालयानि ॥ - जनवरी-फरवरी 2006 जिनभाषित / 15 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524304
Book TitleJinabhashita 2006 01 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2006
Total Pages52
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size6 MB
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