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________________ पृथ्वी सबको आश्रय देती है, किन्तु वह किसी की होती | वैराग्य की ओर मोड़ गया। उन्हें प्रतीत हुआ कि संसार नहीं। बाहुबली की मूर्ति का यह स्पष्ट संदेश है कि- 'पृथ्वी | असार है। इसमें कोई किसी का साथी नहीं है। एकमात्र काहू की ना भई।' आत्मा ही अपनी है और उसी का ध्यान करना चाहिए, उसी __ प्रायः कहा जाता है कि संघर्ष के तीन प्रमुख कारण होते | पर अधिकार करना चाहिए। बाहुबली ने घोरतप किया। हैं- 1. जर (धन) 2. जोरू (स्त्री) 3. जमीन । जमीन अर्थात् | एक वर्ष तक एकाग्र हो खड़े रहे। यहाँ तक कि पैरों के पास पृथ्वी को सब अपना कहते हैं किन्तु जमीन सभी को धारण | साँपों ने बाँबियाँ बना लीं, बेलों-लताओं ने शरीर पर स्थान करती हुई अपने 'क्षमा' नाम को सार्थक करती है। जो | बना लिया, फिर भी केवलज्ञान (सर्वज्ञत्व) की प्राप्ति नहीं मनुष्य 'सब ठाठ पड़ा रह जाएगा, जब लाद चलेगा बंजारा' | हो सकी। जैसा कि पूर्व में कहा गया है, उनके मन में इस के गीत गाता है, वही पृथ्वी पर एक छत्र राज करने के सपने | बात का पश्चात्ताप था कि भरत को मैंने दुःख पहुँचाया है। देखता है। सपने कभी पूरे तो नहीं हो पाते, क्योंकि इनकी | अतः जब भरत ने आकर उनकी पूजा की, तो वे पश्चात्ताप सीमा अपनी बनाई सीमा का सदैव अतिक्रमण करती है। से मुक्त हो गये और उन्हें केवलज्ञान प्राप्त हो गया। सुप्रसिद्ध दार्शनिक इमर्सन ने लिखा है कि- 'एक समय भगवान् बाहुबली की मूर्ति का संदेश आत्मवैभव का अनेक लोगों ने बहुत शस्य श्यामला भूमि पर अधिकार कर | दिग्दर्शन है। शरीर से परे आत्मवैभव की पहचान आत्मा में लिया। वे अपनी जागीर में घूमते हुए गर्व का अनुभव कर डूबने पर ही हो सकती है। भगवान् बाहुबली की मूर्ति रहे थे। वे कहते थे यह भूमि तो हमारी है।' उस समय पृथ्वी | बताती है कि-'शुद्धचिद्रूपोऽहम्, नित्यानन्दस्वरूपोऽहम्, से प्रतिध्वनि उत्पन्न हुई कि शुद्धोऽहं, बुद्धोऽहं, अनन्तचतुष्टयस्वरूपोऽहम्, निरञ्जनोऽहम्, They call me theirs शल्यत्रयरहितोऽहम्, केवलज्ञानस्वरूपोऽहम्, नोकर्मरहितोऽहम्, Who so controlled me : द्रव्यकर्मरहितोऽहम्, भावकर्मरहितोऽहम्, आनन्दस्वरूपोऽहम्, Yet every one Wished to stay, and is gone. निर्विकल्पस्वरूपोऽहम्, स्पर्शरसगंधवर्णरहितोऽहम्, क्रोधHow am I theirs मानमायालोभरहितोऽहम्, रागद्वेषमोहरहितोऽहम्, पंचेन्द्रिय If they cannot hold me, व्यापारशून्योऽहम्, सोऽहं, आत्मस्वरूपोऽहम्।' अर्थात् मैं शुद्ध, But I hold them? चिद्रूप हूँ, नित्य आनंदस्वरूप हूँ, शुद्ध हूँ, बुद्ध हूँ, अनन्त - जिन्होंने मुझ पर अधिकार जमाया, उन्होंने कहा- 'यह | माया, उन्होंने कहा- 'यह | चतुष्टयस्वरूप हूँ, निरंजन (कालिमा) रहित हूँ, माया-मिथ्यापृथ्वी हमारी है।' प्रत्येक ने चाहा कि वह यहा निवास करे, | निदान रूप तीन शल्यों से रहित हूँ, केवलज्ञानस्वरूप हूँ, किन्तु वह चला गया। बताओ ! मैं उनकी किस प्रकार हूँ? वे | नोकर्म से रहित हूँ, द्रव्यकर्म से रहित हूँ, भावकर्म से रहित मुझे पकड़ नहीं सकते, किन्तु मैं ही उनको अपने अधीन । हूँ, आनंदस्वरूप हूँ, निर्विकल्पस्वरूप हूँ, स्पर्श-रस-गंधकरती हैं। जीवन की इस सच्चाई को तेरा-मेरा' का विश्वासी | वर्ण से रहित हूँ कोध-मान-माया-लोभ रूपचार कषायों से मनुष्य आसानी से ग्रहण नहीं कर पाता है। भगवान् ऋषभदेव रहित हूँ, राग-द्वेष-मोह से रहित हूँ, स्पर्शन-रसना-घ्राणने वैराग्य से पूर्व अपने 101 पुत्रों में बराबर राज्य का विभाजन चक्षु-श्रोत्र रूप पंच इन्द्रियों के व्यापार (क्रियाओं) से शून्य किया, किन्तु फिर भी भरत और बाहुबली के बीच घोर हूँ, वह मैं हूँ, आत्मस्वरूपी हूँ। माघनन्दि आचार्य द्वारा बताया संघर्ष हुए। नेत्र, जल और मल्ल युद्ध की पराजय ने भरत गया, वह आत्मवैभव भगवान् बाहुबली की मूर्ति एवं चरित को परास्त ही नहीं किया अपितु चक्रवर्तित्व के मान को | से स्पष्ट प्रतिभासित होता है। संसार में भटके हए प्राणियों के चकनाचूर कर दिया। चक्र भी अपरिमित शक्तिवान् होने पर | लिए आत्मवैभव बतानेवाला, आत्महितकारी यह मौन/सार्थक भी उस पर अपना वश नहीं चला सका, जिसके भाग्य में | उपदेश भगवान् बाहुबली की मूर्ति ही दे सकती है क्योंकि स्ववशी होना लिखा था, जो चरमशरीरा था। स्ववश का होना | उन्होंने कामदेव होते हुए भी काम को जीता है, प्रथम तीर्थंकर भी इसमें महत्त्वपूर्ण प्रमुख कारण बना। सुदर्शनचक्र की के पुत्र होने पर भी उनसे पहले मोक्षमार्ग को प्रशस्त कर विशेषता होती है कि वह जिसके पास होता है, उसके वंशवाले | मोक्ष प्राप्त किया है। उनकी मूर्ति शून्य/एकान्त में भले ही का वध नहीं करता। चक्र तो निष्काम/निष्प्रभ हुआ किन्तु | स्थित हो किन्त सांसारिकता के शन्य को बेधती वह सबको विजेता बाहुबली को संसार की असारता का परिज्ञान कराकर | बता रही है कि तम भी मेरे जैसे बन सकते हो क्योंकि तम में 8 / जनवरी-फरवरी 2006 जिनभाषित Jain Education International www.jainelibrary.org For Private & Personal Use Only
SR No.524304
Book TitleJinabhashita 2006 01 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2006
Total Pages52
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size6 MB
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