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________________ सम्पादकीय 'जिनभाषित' को अहिंसा इण्टरनेशनल पुरस्कार जिनभाषित के पाठकों को यह जानकर प्रसन्नता होगी कि उनकी इस प्रिय पत्रिका को अहिंसा इण्टरनेशनल पुरस्कार से सम्मानित किया गया है। अहिंसा इण्टरनेशनल संस्था की स्थापना सन् 1973 में दिल्ली में हुई थी। 32 वर्ष के कार्यकाल में इस संस्था ने राष्ट्रीय एवं अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर अपनी पहचान बनायी है। स्वदेश में तथा अमेरिका, लन्दन, बैंकाक, सिंगापुर आदि विदेशों में अनेक जैन सम्मेलन आयोजित कर अथवा उनमें सक्रिय सहयोग प्रदान कर इसने अहिंसा, सद्भाव, शाकाहार, जीवदया, विकलांगसेवा, समयोचित साहित्यसृजन आदि से सम्बन्धित प्रवृत्तियों को अग्रेसर किया है और इनके माध्यम से जैन विचारधारा को दूरदूर तक सम्प्रेषित किया है। यह संस्था प्रतिवर्ष निम्नलिखित तीन पुरस्कार भी प्रदान करती है - 1. अहिंसा इण्टरनेशनल डिप्टीमल आदीश्वरलाल जैन साहित्य पुरस्कार (31000 रुपये), 2. अहिंसा इण्टरनेशनल भगवानदास शोभालाल जैन शाकाहार पुरस्कार (21000 रुपये), तथा 3. अहिंसा इण्टरनेशनल प्रेमचन्द जैन पत्रकारिता पुरस्कार (21000 रुपये)।। वर्ष 2004 के लिए ये पुरस्कार क्रमश: प्रो. डॉ. विद्यावती जी जैन आरा, श्री महावीर प्रसाद जी जैन दिल्ली एवं प्रो. डॉ. रतनचन्द्र जैन भोपाल को प्रदान किये गये। इस वर्ष के लिए एक विशेष पुरस्कार, अहिंसा इण्टरनेशनल डिप्टीमल आदीश्वरलाल जैन जीवदया पुरस्कार (21000 रूपये) श्री बुद्धिप्रकाश जैन भैसोदामंडी (मन्दसौर म.प्र.) को भी समर्पित किया गया। पुरस्कार-वितरण दि. 5 नवम्बर 2005 को प्रात: 8.15 पर बाहुबली एन्क्लेव दिल्ली में आचार्य श्री पुष्पदन्तसागर जी के शिष्यद्वय मुनि श्री सौरभसागर जी एवं मुनि श्री प्रबलसागर जी के सान्निध्य में समारोहपूर्वक किया गया। जिनभाषित के सम्पादक को जो प्रशंसनीय सम्पादन-कुशलता के लिए पत्रकारिता पुरस्कार प्रदान किया गया, उसके लिए जिनभाषित-परिवार अहिंसा इण्टरनेशनल संस्था, उसके पुरस्कार प्रदाताओं और पदाधिकारियों का हृदय से धन्यवाद करता है। पुरस्कार और तिरस्कार, प्रशंसा और निन्दा का मानव-प्रवृत्तियों पर बडा असर होता है। पुरस्कार मानव की कृति का, उसकी निष्ठा और अध्यवसाय का मूल्यांकन करता है और सत्प्रवृत्तियों को प्रोत्साहित करता है। वह मनुष्य में आत्मविश्वास का संचार करता है, उसे सुदृढ करता है। वह आश्वस्त करता है कि उठाये गये कदम सही दिशा में, लोकानुमोदित दिशा में उन्मुख हैं और उस दिशा में प्रगति होती रहनी चाहिए। पुरस्कार सत्प्रवृत्तियों की महती अनुमोदना है। अत: वह स्वयं में एक महान् सत्प्रवृत्ति है। अहिंसा इण्टरनेशनल के पुरस्कारप्रदाताओं ने उत्कृष्ट जैन-साहित्य के अबाध सृजन, शाकाहार और जीवदया की प्रेरणा के उत्कृष्ट प्रयास तथा जिनशासन के यथार्थ स्वरूप की प्रस्तुति एवं प्रभावना हेतु कुशल पत्रकारिता की प्रवृत्ति को गतिमान् बनाये रखने की दिशा में मनोवैज्ञानिक उपाय अपनाकर जिनशासन की प्रभावना का सत्प्रयास किया है, अत: वे अभिनन्दनीय हैं। इस इण्टरनेशनल संस्था द्वारा 'जिनभाषित' को पुरस्कृत किया जाना इस बात का प्रमाण है कि यह पत्रिका अपने नाम के अनुसार कार्य कर रही है। यह 'जिनभाषित' अर्थात् जिनोपदेश का सम्यग्रूपेण प्रतिपादन कर रही है, उक्त संस्था के देश-विदेश में फैले हुए सदस्य जिनभाषित' के सम्पादकीय एवं अन्य लेखों, कविताओं-कथाओं एवं जिज्ञासा-समाधान को पसन्द करते हैं, उन्हें आगमसम्मत और युक्तिसंगत मानते हैं। जिनभाषित के जन्मकाल से ही सुधी पाठकों से जो प्रतिक्रियाएँ प्राप्त होती आ रही हैं, उनसे भी उक्त तथ्य की पुष्टि होती है। पत्र-पत्रिकाओं के लिए पाठकों की प्रतिक्रियाएँ दर्पण के समान होती हैं। वे उसमें अपना रूप निहारती हैं, अपनी कान्ति और कलंक के दर्शन करती हैं और फिर अपने रूप को निखारती हैं। . 'जिनभाषित' का उद्देश्य है कि इसमें ज्ञानवर्धक एवं समीचीन-श्रद्धा-पोषक लेख प्रकाशित हों, लेख शोधपूर्ण हों अर्थात् उनसे शास्त्रों की ऐसी बातें सामने आवें, जो अभी तक अनुद्घाटित हों अथवा उनमें सिद्धान्तों की विशेष सन्दर्भ में विशेष व्याख्या की गयी हो। जिनभाषित का उद्देश्य ऐसे लेख छापना भी है, जिनसे समाज में फैले अन्धविश्वासों, मिथ्या श्रद्धाओं और आगमविरुद्ध प्रवृत्तियों की पहचान हो और उनसे छुटकारा पाने की प्रेरणा मिले। ऐसे लेखों के लेखक आज विरल जमाने की याद आती है, जब 'जैनहितैषी' और 'अनेकान्त' जैसी पत्रिकाएँ पं. नाथूराम जी प्रेमी और पं. जुगलकिशोर जी मुख्तार जैसे विद्वानों के सम्पादकत्व में निकलती थीं। उनमें प्रकाशित लेख शोधपूर्ण एवं अत्यंत ज्ञानवर्धक होते थे। उनके लेखक भी बड़े निष्णत एवं साहित्य-व्यसनी होते थे। उन्होंने उक्त पत्रिकाओं में जो लेख लिखे हैं, वे जैन साहित्य और इतिहास को समझने में युगों-युगों तक दीपक का काम करेंगे। विद्वानों की वर्तमान पीढ़ी से ऐसे लेख बहुत कम उपलब्ध हो पा रहे हैं, इसलिए पूर्व विद्वानों के एक-दो पुराने लेख हम 'जिनभाषित' में देते हैं, जिनसे वर्तमान पाठकों को उनके शोधपूर्ण विचारों से अवगत होने का दुर्लभ अवसर प्राप्त होता है तथा नये लेखकों को उनका अनुकरण करने की प्रेरणा मिलती है। रतनचन्द्र जैन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524303
Book TitleJinabhashita 2005 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2005
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size5 MB
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