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________________ से दूसरे भेदवाले में यही विशेषता है कि यह नियम से लौंच | संस्कृत टीका भी लिखी है। वहीं का यह श्लोक मय टीका करता है, पीछी रखता है और पाणिपात्र में भोजन करता है | के है। इसमें लिखा है कि, 'क्षुल्लकों के लिये एक वस्त्र का और कोई विशेषता नहीं है। ही विधान है दूसरे का नहीं। वे खड़े होकर भोजन भी नहीं जरा सोचने की बात है कि अगर ग्रन्थकारों को ऐलक | कर सकते और उनके लिये आतापनादि योग भी सदैव के लिए खडा भोजन कराना अभीष्ट होता, तो उक्त विशेषताओं निषिद्ध है।' के साथ एक विशेषता खड़ा भोजन की भी लिख देते। किन्तु | यह कथन क्षुल्लक के लिए है, ऐलक के लिए नहीं। ऊपर के किसी ग्रन्थ में ऐसा नहीं लिखा गया है। श्लोक में भी साफ क्षुल्लकों के स्थिति भोजन का निषेध धर्मोपदेशपीयूषवर्ष, भावसंग्रह और स्वामीकार्तिकेया- | किया है। ऐसी शंका भी नहीं करनी चाहिए। क्योंकि प्राचीन नप्रेक्षा की टीका में तो साक्षात द्वितीयोत्कष्ट श्रावक (जिसे | ग्रन्थों में ऐलक नाम आता ही नहीं। जिसे आज हम ऐलक वर्तमान में ऐलक कहते हैं) को ही बैठे भोजन की आज्ञा की | कहते हैं उसे ही शास्त्रकारों ने क्षुल्लक नाम से भी लिखा है। है। रहा चारित्रसार सो उसमें उद्दिष्टविनिवृत्त नाम की समूची | स्वयं इसी ग्रन्थ में इसके अगले ही श्लोक में इस रहस्य को ही ११वीं प्रतिमाधारी को बैठे भोजन करना प्रतिपादित किया | खोल दिया है। यथा क्षौरं कुर्याच्च लोचं वा पाणौ भुंक्तेऽथ भाजने। यद्यपि ऊपर लिखित प्रमाणों में बैठे भोजन का विधान कौपीनमात्रतंत्रौऽसौ क्षुल्लकः परिकीर्तितः ॥ १५६॥ करना ही खड़े भोजन का निषेध सिद्ध कर देता है, फिर भी अर्थ- क्षौर कराओ चाहे लौंच, हाथ में भोजन करो कुछ भाई कहते हैं कि क्या हुआ अगर बैठे भोजन करना | चाहे पात्र में, वह कोपीनमात्र का धारी क्षुल्लक कहा जाता लिख दिया तो, कहीं यह तो नहीं लिखा कि 'ऐलक खड़े | है। भोजन न करें।' ऐसे कदाग्रहियों के सन्तोष के लिए भी वैसा इससे स्पष्ट है कि यहाँ उस ऐलक को भी क्षुल्लक एक प्रमाण नीचे और दे देते हैं। जिसमें साफ खड़े भोजन का | कहा गया है जो लौंच करता है, करपात्र में भोजन करता है निषेध किया गया है | और कौपीन रखता है। इसलिए इस ग्रन्थ में जिस क्षुल्लक क्षुल्लकेष्वेककं वस्त्रं नान्यन्न स्थितिभोजनम् । के लिये स्थितिभोजन करना मना किया है उसे ऐलक भी आतापनादियोगोऽपि तेषां शश्वनिषिध्यते॥ १५५॥ | समझना चाहिए। टीका- क्षुल्लकेषु-सर्वोत्कृष्ट श्रावकेषु । एककं-एकं। यह कथन उस वक्त का है जबकि ११वीं प्रतिमा के वस्त्रं-अंबरं पटः । नान्यत्-अन्यं-द्वितीयं वस्त्रं न भवति। न | २ भेद नहीं थे, एक ही था और उसे क्षुल्लक (टीका में स्थितिभोजनं उद्भीभूयभ्यवहारोऽपि न भवति। आतापना- | उत्कृष्ट श्रावक)ही कहते थे। इसी से उसके एक वस्त्र ही दियोगोऽपि-आतापवृक्षमूलाभावकाशयोगश्च तेषां-क्षुल्लकानां | बताया है। आज यह एक वस्त्र ऐलक के माना जाता है और शश्वत्-सर्वकालं निषिध्यते प्रतिषिध्यते। क्षुल्लक के दो वस्त्र (कौपीन और उत्तरीय) माने जाते हैं। गरु दासाचार्य का बनाया हआ एक 'प्रायश्चित्तसमुच्चय' नाम का ग्रन्थ है, जिस पर श्री नन्दिगुरु ने एक 'जैन निबन्ध रत्नावली'(भाग २) से साभार क्रमश:......... वीर देशना विवेकहीन मनुष्य को न कीर्ति, न कान्ति, न लक्ष्मी, न प्रतिष्ठा, न धर्म, न काम, न धन और न सुख कुछ भी प्राप्त नहीं होता है। An indiscreet person attains neither glory, nor lustre, nor renown, neither dharma, nor desire, neither wealth nor bless. प्राणियों के ऊपर दयाभाव रखना धर्म का स्वरूप है। Compassion on the living beings is the essential nature of dharma. मुनिश्री अजितसागर जी 16 नवम्बर 2005 जिनभाषित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524302
Book TitleJinabhashita 2005 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2005
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size4 MB
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