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________________ चतुर्विधोपवासं च कुर्यात्पर्वसु निश्चयात् ॥ ६३॥ | यही श्लोक श्रुतसागर ने षट्प्राभृत (सुत्तपाहुड, गाथा (मेधावीकृत धर्मसंग्रह श्रावकाचार)। २१) की टीका में उक्तं च रूप से लिखा है। इन चारों उद्धरणों में 'निश्चयात्' आदि वाक्यों से इस पाणिपात्रेऽन्यपात्रे वा भजेदभुक्तिं निविष्ट - बात पर बहुत अधिक जोर दिया गया है कि वह निश्चय से बान्॥ १८५ ॥ (गुणभूषणकृत श्रावकाचार) चारों पर्वतिथियों में उपवास करे ही। स्वयं आशाधर ने स्वोपज्ञ ऊपर के इन तमाम ग्रन्थों में 'उपविश्य, समुवइट्ठो, टीका में उक्त श्लोकार्द्ध के 'कुर्यादेव' शब्द की व्याख्या | समुपविष्टः, निविष्टवान्' इन क्रियाओं से साफतौर से ऐलक करते हुए लिखा है कि के लिये बैठा रहकर भोजन करना लिखा है। कर्यादेव अवश्यं विदध्यादसौ।कं उपवासमनशनं। किं यहाँ इतनी बात और कह देना योग्य है कि ग्यारहवीं विशिष्टं चतुर्विधं चतस्रोविधा आहारास्त्याज्या यस्मिन्नसौ- | प्रतिमा का जो स्वरूप ग्रन्थों में मिलता है वह एक प्रकार से चतुर्विधस्तं । चतुष्पा मासि मासि द्वयोरष्टम्योर्द्वयोश्चतुर्दश्योः। | नहीं पाया जाता। इसकी संज्ञा भी एक रूप में नहीं मिलती। ग्यारहवीं प्रतिमा में व्रत एक ऐसी ऊँची हद तक | कहीं इसे उद्दिष्टविरत, कहीं उत्कृष्टश्रावक और कहीं इस पहुँच जाते हैं कि नीचे की प्रतिमाओं के व्रत बिना कहे ही समूची ही प्रतिमाधारी को क्षुल्लक कहा गया है। कहीं इसके उनमें अन्तर्लीन हो जाते हैं, किन्तु प्रोषधोपवास प्रतिमा का | | दो भेद किये हैं- १. प्रथमोत्कृष्ट और २. द्वितीयोत्कृष्ट। वहाँ अन्तर्भाव नहीं होता, इसलिए उसे यहाँ खासतौर से कहीं प्रथमोत्कृष्ट के भी दो भेद किये हैं- १. एक भिक्षा अलग कहा है। नियम और २. अनेक भिक्षा नियम। इतना सब कुछ होते हुए मुनि और ऐलक में भेद डालने वाली यह तो हुई एक भी प्राचीन ग्रन्थों में कहीं ऐलक नाम की उपलब्धि नहीं होती। बात। अब हम एक दूसरी बात और बतलाते हैं। वह यह है | ऐलक नाम की कल्पना बहुत ही पीछे की जान पड़ती है। कि, आजकल जो ऐलक खड़े आहार लेते हैं, यह विधान मुनियों | प्रचलित में जो क्षुल्लक और ऐलक कहलाते हैं उनकी क्रम के लिये है, ऐलकों के लिए नहीं। इस विषय के लगभग सभी | से प्रथमोत्कृष्ट और द्वितीयोत्कृष्ट के भेदों में गणना की जा ग्रन्थों में ११वीं प्रतिमाधारी को केवल बैठे भोजन करने की सकती है। साधारणतया क्षुल्लक और ऐलक की चर्या में इजाजत दी है। पाठकों की जानकारी के लिए उन सब यह भेद है कि क्षुल्लक क्षौर (हजामत) कराता है, एक वस्त्र प्रमाणों को नीचे उद्धृत किये देते हैं (पछेवड़ी)रखता है और पात्र में भोजन करता है। किन्तु पाणिपात्रपुटेनोपविश्यभोजी (चारित्रसार संस्कृत ऐलक केशों का लौंच करता है, कोपीन मात्र वस्त्र रखता है और करपात्रभोजी है। कुछ भी हो यह तो निश्चित है कि पृष्ठ १९)। ११ वी प्रतिमा के किसी भी भेद प्रभेद वाले के लिए बैठे भुंजइ पाणपत्तम्मि भायणे वा सुई समुवइट्ठो ॥३०३॥ " | भोजन करने के सिवाय आगम में कहीं खड़े भोजन का कथन (वसुनन्दि श्रावकाचार)। नहीं है। पाणिपात्रे भाजने वा समुपविष्टः सन्नेकवारं भुंक्ते।। सागारधर्मामृत,धर्मसंग्रहश्रावकाचार और गुणभूषणकृत (तत्त्वार्थवृत्ति भास्करनन्दि कृत अ०७, सू० ३९ ,पृ० १८१) श्रावकाचार में पहिले प्रथमोत्कृष्ट श्रावक के लिए बैठे भोजन स्वयं समपुविष्टोऽद्यात्पाणिपात्रेऽथ भाजने॥ ४०॥ का वर्णन करने के बाद द्वितीयोत्कृष्ट श्रावक की केशलुंचन अ०७ (आशाधरकृत सागारधर्मामृत)। | आदि उन क्रियाओं का वर्णन किया है जो प्रथमोत्कृष्ट से आद्य:पात्रेऽथवाऽपाणौ भुंक्ते य उपविश्य वै ॥६३॥ द्वितीयोत्कृष्ट में विशेष हैं। शेष क्रियाएँ द्वितीयोत्कृष्ट के अ० ८ (मेधावीकृत धर्मसंग्रह श्रावकाचार)। लिए 'तद्वद्वितीयः' 'तथा द्वितीय:' 'द्वितीयोऽपि भवेदेवं' उपविश्य चरेद्भिक्षां करपात्रेऽङ्गसंवृतः॥ ५४६॥ इन वाक्यों से वही रहने दी हैं जो प्रथमोत्कृष्ट के लिए कही (वामदेवकृत भावसंग्रह)। गई थीं। वसुनन्दिश्रावकाचार में भी इसी तरह से कथन लोचं पिच्छं च संधत्ते भुंक्तेऽसौ चोपविश्य वै।। २७२॥ किया गया है, जैसा कि उसकी निम्न गाथा से प्रकट है - (ब्रह्मनेमिदत्तकृत धर्मोपदेशपीयूषवर्ष) एवं भेओ होई णवर विसेसो कुणिज णियमेण। लोचं पिच्छं धृत्वा भुंक्तेह्य पविश्य पाणिपुटे । लोचं धरिज्ज पिच्छं भूजिज्जो पाणिपत्तम्मि॥ ३११॥ (शुभचन्द्रकृत स्वामी कार्तिकेयानुप्रेक्षा की टीका)। इस गाथा में लिखा है कि ११वीं प्रतिमा में प्रथम भेद - नवम्बर 2005 जिनभाषित 15 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524302
Book TitleJinabhashita 2005 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2005
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size4 MB
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